शनिवार, फ़रवरी 12, 2011

जिसे बार - बार भूल जाता है अड़तालीस साल का आदमी ।


कल कवि कुमार अम्बुज का फोन आया...”  कैसे हो शरद ? बहुत दिनों से तुम्हारा कोई समाचार नहीं मिला ? “ कुमार भाई की इस चिंता ने मुझे द्रवित कर दिया । इस उम्र में जब सब लोग अपनी अपनी चिंता में व्यस्त रहते हैं किसी को इतनी चिंता कहाँ होती है कि पूछे कोई किस  हाल में जी रहा है । कुमार अम्बुज जी पिछले दिनों नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृति ले चुके हैं और अपनी ज़िन्दगी की दूसरी पारी खेलने के लिये कमर कस रहे हैं । लेकिन यह कवि ही हो सकता है जो अपनी चिंता के साथ ज़माने भर की चिंता करे । प्रस्तुत है श्री कुमार अम्बुज की यह कविता उनके संग्रह “ क्रूरता “ से ।

अड़तालीस साल का आदमी

अपनी सबसे छोटी लड़की के हाथ से
पानी का गिलास लेते हुए
वह उसका बढ़ता हुआ कद देखता है
और अपनी सबसे बड़ी लड़की की चिंता में डूब जाता है

नाइट लैम्प की नीली रोशनी में
वह देखता है सोई हुई बयालीस की पत्नी की तरफ
जैसे तमाम किए- अनकिए की क्षमा माँगता है

नौकरी के शेष नौ - दस साल
उसे चिड़चिड़ा और जल्दबाज़ बनाते हैं
किसी अदृश्य की प्रत्यक्ष घबराहट में घिरा हुआ वह
भूल जाता है अपने विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ

अड़तालीस का आदमी
घूम- फिर कर घुसता है नाते - बिरादरी में
मिलता है उन्ही कन्दराओं उन्हीं सुरंगों में
जिनमें से एक लम्बे युद्ध के बाद
वह बमुश्किल आया था बाहर

इस तरह अड़तालीस का न होना चुनौती है एक
जिसे बार - बार भूल जाता है
अड़तालीस साल का आदमी ।  

                   -- कुमार अम्बुज  

31 टिप्‍पणियां:

  1. लड़कियों के पिता की जिम्मेदारियों पर गहरा चिंतन दर्शाती एक सुन्दर कविता ।

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  2. मिड-लाइफ क्राइसिस से गुजरते व्यक्ति के अंतर्द्वंद्व का बहुत ही सही खाका खींचा है कवि अम्बुज ने
    जब वक्त हाथों से फिसलता हुआ प्रतीत होता है ....और गुजरे वक्त में बहुत कुछ ना कर पाने की टीस भी साथ होती है..

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  3. बेहद गहन अभिव्यक्ति है………कवि ने हर उस इंसान के मन की व्यथा लिख दी है जो उम्र के उस दौर से जब गुजरता है तो कैसा महसूस करता है…………बेह्द उम्दा।

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  4. सशक्त रचना, सामाजिक बाध्यताओं की।

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  5. लीजिए अब आप के बाद कुमार अम्‍बुज भी उसी राह पर हैं। जरूरी नहीं है कि सारी उम्र नौकरी ही की जाए।
    *
    अड़तालीस साल के इस आदमी को बहुत बहुत शुभकामनाएं।
    *
    कविता तो खैर अपनी बात कहती ही है।

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  6. sundar...dil ko chhoo lene valee kavitaa. kumar ambuj hamare samay ke saarthak kaviyon men se hai. ve mere priy rahe hai. kavitaa ke lihaaz se aur vyaavahaarik taur par bhi.

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  7. बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता। हम भी उस पायदान पर पैर रखने वाले हैं। होगा वह महीना मई का। किंतु ईश्वर ने हमसे माता पिता का साया बचपन मे ही छीनकर अब उसकी भरपाई के लिये एक "खुशहाल परिवार" के तोहफे से नमाज़ा है। उस परवरदिगार की माया ही अजीब है। तभी तो हम सभी उस परमसत्ता को स्वीकारते हैं। उनका शुक्रगुज़ार रहते हैं। रचना बहुत ही सुंदर।

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  8. एक लाइन में कहूंगा कि यह कविता सिर्फ़ और सिर्फ़ कुमार अंबुज लिख सकते हैं!

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  9. चिंताओं से व्यथित आदमी की परिपक्व चिंता

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  10. एक अड़तालीस साल के परिपक्व आदमी या ये कहें की इंसान की परिपक्व कविता और पोस्ट दोनों ही लाजवाब लगीं.

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  11. उफ़! बेहतरीन, मार्मिक प्रस्तुति!

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  12. जीवन के इस पड़ाव का नितांत यथार्थ यही है. बहुत सुंदर ढंग से व्यक्त किया है.

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  13. you made my day.....

    इतने कम शब्दों में पूरे अड़तालीस साल समेट दिए........

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  14. बहुत ही गहन बातें। मात्र चंद शब्दों में एक शख्स के सामाजिक, आर्थिक, भावनात्मक पहलूओं को बहुत ही सुंदर ढंग से अभिव्यक्त किया गया है।

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  15. एक चिंतित व्यक्तित्व का बेहतरीन शब्द चित्रण किया है आपने ! बधाई शरद भाई !

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  16. गहन भावों के साथ विचारणीय प्रस्‍तुति ।

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  17. ‘ यह कवि ही हो सकता है जो अपनी चिंता के साथ ज़माने भर की चिंता करे । ’

    तभी तो, वह सवाल भी करता है कि सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में क्यों??????????

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  18. बहुत देर से सोच रहा हूँ कि यह कविता है या अपना दर्द !
    कुमार अंबुज तक मेरा प्रणाम पहुंचे।

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  19. एक अच्छी कविता पढना गुजरना है अन्तर्यात्रा से । मिलना है अपने आप से बहुत आत्मीयता के साथ..। अम्बुज जी के साथ आपको भी नमन इस प्रस्तुति के लिये ।

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  20. यथार्थ है , इस उम्र का आदमी अपनी जिम्मेदरियों को लेकर बहुत चिंतित होता है

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  21. काश कि अडतालीस साल का आदमी उबर सके अपने अडतालीस साल का होने के अहसास से । ब्लॉग पर वापिस आकर इतना अच्चा लग रहा है ।

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  22. जीवन के यथार्थ को हूबहू लिख दिया है ..... ४८ के परिपक्व की तरह परिपक्व रचना ...

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  23. "अड़तालीस का आदमी
    घूम- फिर कर घुसता है नाते - बिरादरी में
    मिलता है उन्ही कन्दराओं उन्हीं सुरंगों में
    जिनमें से एक लम्बे युद्ध के बाद
    वह बमुश्किल आया था बाहर"

    कुमार अंबुजजी की पंक्तियां बिल्कुल सत्य विश्लेषण हैं । सार्थक रचना पढवाने के लिए आभार ।

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