ब्रज मोहन श्रीवास्तव,राह भाटिया,शोभना चौरे, हेमंत कुमार,और अभिषेक ओझा को छठवें दिन प्रकाशित निर्मला गर्ग की कविता “ चश्मे के काँच “ बेहद पसन्द आई । गिरीश पंकज ने कविता पर कविता में अपनी टिप्पणी देते हुए कहा “ बूढ़ी आँखों पर चश्मा / केवल चश्मा नहीं होता /वह थकी उदास आँखों का एक घोषणापत्र होता है । “एम.वर्मा ने कहा “उनका क्या करें जो वक़्त के पहले ही इस अहसास से बूढ़े हो चुके हैं । “ बबली ने बहुत व्यथित हृदय से लिखा है “लोग कोशिश भी करते हैं कि अपनी जवानी बरकरार रहे लेकिन उम्र छिपाई नहीं जा सकती ।“ आशा जोगलेकर ने इस पंक्ति को रेखांकित किया “ यही खयाल बूढ़ी का प्रेम के विषय में भी है ।
नवरात्र के सातवें दिन प्रस्तुत कर रहा हूँ सुविख्यात कथाकार एवं कवयित्री जया जादवानी की कुछ छोटी छोटी कवितायें । स्त्री के मन को प्रकट करने के लिये अधिक शब्दों की ज़रूरत नहीं है । केवल 4 या 5 पंक्तियों की यह कवितायें अपने आप में असीमित विस्तार लिये हुए हैं । इनमें छुपे अर्थ तलाशने की कोशिश करें । - आपका -शरद कोकास
नवरात्रि पर विशेष कविता श्रंखला-समकालीन कवयित्रियों द्वारा रचित कवितायें-सातवाँ दिनस्त्रियाँ
एक
वे हर बार छोड़ आती हैं
अपना चेहरा
उनके बिस्तर पर
सारा दिन बिताती हैं
जिसे
ढूँढने में
रात खो आती हैं ।
दो
जैसे हाशिये पर लिख देते हैं
बहुत फालतू शब्द और
कभी नहीं पढ़ते उन्हे
ऐसे ही वह लिखी गई और
पढ़ी नहीं गई कभी
जबकि उसी से शुरू हुई थी
पूरी एक किताब ।
तीन
वह पलटती है रोटी तवे पर
और बदल जाती है पूरी की पूरी दुनिया
खड़ी रहती है वहीं की वहीं
स्त्री
तमाम रोटियाँ सिंक जाने के बाद भी ।
देह स्वप्न
ले गया कपड़े सब मेरे
दूर.... बहुत दूर
काल बहती नदी में
मैं निर्वसना
तट पर
स्वप्न देखती देह का ।
अनंत में देह
एक पीले पड़ गये पत्ते पर
लिखती हूँ तुम्हारा नाम
देती हूँ उसे हरियाली
कोई दरवाज़ा खटखटाके माँगने आया है
उम्र मेरी ।
बचा लूंगी उसे
एकदम भभक कर बुझने से पहले
मैं बचा लूंगी उसे
हाथों की ओट से
ऐसे कैसे जायेगा प्रेम
मेरी असमाप्त कविता छोड़कर ।
खुद को
अंजलि में
वरती हूँ खुद को
खुद से ।
जया जादवानी