मंगलवार, जून 30, 2009

नरेश चंद्रकर के पाँवों में चक्के लगे है


बचे घर तक पहुँचने का रास्ता,जल और युवती

नरेश चंद्रकर घुमक्कड़ किस्म के कवि हैं. गोआ,आसाम,,हैदराबाद,हिमाचल प्रदेश,जाने कहाँ कहाँ रह चुके हैं. वर्तमान में बड़दा में हैं. वे भटकते हुए भी कविता खोज लाते हैंउनके दो कविता संग्रह हैं बातचीत की उड़ती धूल में औरबहुत नर्म चादर थी जल से बुनी यह कविता उनके इस दूसरे संग्रह से. जल,स्त्री और पृक्रति के प्रति चिंता को एक जाने पहचाने बिम्ब के माध्यम से अभिव्यक्त कर रहे है नरेश चंद्रकर

जल


जल से भरी प्लास्टिक की गगरी छलकती थी बार बार


पर वह जो माथे पर सम्भाले थी उसे

न सुन्दर गुंथी वेणी थी उसकी

न घने काले केश

पर जल से भरी पूरी गगरी सम्भाले वह पृथ्वी का एक मिथक बिम्ब थी


जल से भरी पूरी गगरी सहित वह सड़क पर चलती थी


नग्न नर्म पैर

गरदन की मुलायम नसों में भार उठा सकने का हुनर साफ झलकता था

बार बार छलकते जल को नष्ट होने से बचाती

सरकारी नल से घर का दसवाँ फेरा पूरा करती वह युवती दिखी


दिखी वाहनों की भीड़ भी सड़क पर

ब्रेक की गूंजती आवाजें


बचे रहें युवती के पैर मोच लगने से

बचे रहें टकराने से वे वाहनों की गति से

बचा रहे स्वच्छ जल गगरी में


बचा रहे सूर्य के उगते रक्तिम नर्म घेरे में

उड़ते पंछी का दृश्य


बचे घर तक पहुँचने का रास्ता,जल और युवती !!