शनिवार, जुलाई 14, 2012

1989 की कवितायें - मुर्दों का टीला

सन 2005 में पहल पुस्तिका के अंतर्गत प्रकाशित 53 पृष्ठों की अपनी लम्बी कविता "पुरातत्ववेत्ता " लिखने के बहुत पहले यह कविता लिखी थी ..शायद इस कविता में उस कविता का विचार चल रहा था , स्वर इसमें भी आक्रोश का था , मेरी उन दिनों की अन्य कविताओं की तरह यह भी एक राजनीतिक व्यंग्य की कविता है । मोहेंजोदड़ो का एक अर्थ मुर्दों का टीला भी होता है ।



49. मुर्दों का टीला

टीले पर उमड़ आया है
पूरा का पूरा गाँव
गाँव देख रहा है
पुरातत्ववेत्ताओं का तम्बू
कुदाल फावड़े रस्सियाँ
निखात से निकली मिट्टी
छलनी से छिटककर गिरते
रंगबिरंगे मृद्भाण्डों के टुकड़े
मिट्टी की मूर्तियाँ
टेराकोटा
मिट्टी के बैल
हरे पड़ चुके ताँबे के सिक्के

गाँव हैरान है
बाप-दादाओं से सुनी
कहानियाँ क्या झूठी थीं
ज़मीन में दबी
मोहरों से भरी सन्दूकों की
सोने के छल्लों से टकराने वाली
लौह कुदालों की
खज़ाने पर फन फैलाये
बैठे हुए काले नाग की
सुना तो यही था
उसे स्वर्णयुग कहते थे
चलन में थे सोने-चान्दी के बर्तन
उसके घर के मिट्टी के बर्तनों जैसे हैं

श्रुतियों का विश्वास
बलगम के साथ थूकते हुए
वह याद करता है
अपने उस अँगूठे के निशान को
पिछले चुनाव के दौरान
टीले के नीचे दबे खज़ाने को
गाँववालों के बीच बँटवाने का आश्वासन देकर
ऐसे ही चित्रोंवाले कागज़ पर
मुहर लगवाकर कोई चला गया था

एक बच्चा
ज़ोरों से चीखता हुआ
गाँव की ओर भागता है
अँगूठा लगाने वालों जागो ।

                        शरद कोकास