कई साल पहले की बात है । ऐसे ही जब ग्रीष्म का आगमन हुआ एक दिन दफ्तर में एक मित्र से बात चल रही थी । वे कहने लगे “ यार गर्मी के दिनों में दफ्तर जाना बहुत अखरता है ।“ मैने कहा “ क्या करोगे भाई नौकरी तो नौकरी है , करनी ही पड़ेगी । आखिर मौसम को भी प्रकृति के दफ्तर में अपनी नौकरी बजानी ही पड़ती है । “ बस इसी बात से उपजा विचार कुछ नये बिम्बों के साथ कविता में ढल गया । इन दिनों फिर गर्मी का मौसम है सो इस कविता की याद आ गई , लीजिये आप भी पढ़िये ..पढ़कर अच्छा लगेगा । हाँ ,एक बात और , यह कविता समर्पित कर रहा हूँ उन तमाम मित्रों को जो इस भीषण गर्मी में भी नौकरी कर रहे हैं , इस दुआ के साथ कि उन्हे कुछ तो राहत मिले ।
प्रक्रति के दफ्तर में
कल शाम गुस्से में लाल था सूरज
प्रकृति के दफ्तर में हो रहा है कार्य विभाजन
जायज़ हैं उसके गुस्से के कारण
अब उसे देर तक रुकना जो पड़ेगा
नहीं टाला जा सकता ऊपर से आया आदेश
काम के घंटों में परिवर्तन ज़रूरी है
यह नई व्यवस्था की मांग है
बरखा , बादल, धूप , ओस , चाँदनी
सब किसी न किसी के अधीनस्थ
बन्धी बन्धाई पालियों में
काम करने के आदी
कोई भी अप्रभावित नहीं हैं
हवाओं की जेबें गर्म हो चली हैं
धूप का मिज़ाज़ कुछ तेज़
चान्दनी कोशिश में है
दिमाग की ठंडक यथावत रखने की
बादल, बारिश ,कोहरा छुट्टी पर हैं इन दिनों
इधर शाम देर से आने लगी है ड्यूटी पर
सुबह जल्दी आने की तैयारी में लगी है
दोपहर को नींद आने लगी है दोपहर में
सबके कार्य तय करने वाला मौसम
खुद परेशान है तबादलों के इस मौसम में
खुश है तो बस रात
अब उसे अकेले नहीं रुकना पड़ेगा
वहशी निगाहों का सामना करते हुए
ओवरटाइम के बहाने देर रात तक
भोर , दुपहरी , साँझ, रात
सब के सब नये समीकरण की तलाश में
जैसे पुराने साहब की जगह
आ रहा हो कोई नया साहब ।
शरद कोकास