शुक्रवार, अक्तूबर 01, 2010

बूढ़े होने से पहले इतना ज़रूर सोचें

आज विश्व वृद्ध दिवस है । हर कोई के लिए एक दिवस होता है तो बुज़ुर्गों के नाम से एक दिन क्यों न हो । बुज़ुर्गों से बातें करके देखिये , कितना बड़ा खजाना होता है उनके पास बातों का । हम उनका सम्मान भी करते हैं ,लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि वे सिर्फ बुज़ुर्ग हैं और उम्र का अनुभव उनके पास है इसलिये वे समझदार हैं । सहज मानवीय कमज़ोरियाँ उनके भीतर भी हो सकती हैं । प्रस्तुत है दो मध्यवर्गीय बूढ़े दोस्तों पर यह कविता जो बूढ़ों पर होने के साथ साथ दोस्तों पर भी है ।  उम्मीद है इनसे आप ज़रूर कहीं न कहीं मिले होंगे ।
 


दो बूढ़े दोस्त


बचपन में बिछड़े दो दोस्त
बरसों बाद मिले
यादों पर जमी धूल साफ हुई
कहकहे गूंजे
गूंजी हथेली पर हथेली की थाप
दीवारें चौंकी
पलटकर देखा राह चलते लोगों ने
कुछ ने ताज्जुब व्यक्त किया
कुछ ने इत्मीनान

हल्की सी नम हुई आँखों की कोर
ज़रा सी ढ़ीली हुई तनी हुई डोर
आत्मीय उलाहनों के साथ
ज़ुबान पर जायज़ शिकायतें आई
बहुत दिनों बाद मन खुला
शुरु हुआ बातों का सिलसिला

वे बखानते रहे
जिंदगी के बेकाबू घोड़े को
साध लेने की शौर्य गाथाएँ
ज़िक्र करते रहे
आसमान से उतरे सुखों का
इतराते रहे अपनी उपलब्धियों पर
गर्व करते रहे हासिल सुविधाओं पर

बातें हुई बेटों की तरक्की के बारें में
बेटियों की बड़े घर में शादी और
दामादों की संपन्नता के बारे में
जिम्मेदारियाँ पूरी कर लेने का दंभ
सर चढ़कर बोलता रहा
तमाम सुख पा लेने का अहम
एक दूजे को तोलता रहा  

कहीं भी अकेलेपन का जिक्र नहीं
पराजय का उल्लेख कहीं नहीं
कोई बात नहीं हताशा की
टूटन का कोई बयान नहीं
कोई प्रदर्शन नहीं
अपनों से मिले ज़ख्मों का
समय के साथ छूट गये पलों का
एक दूसरे की अनुपस्थिति से हुए
अनदेखे नुकसानों का कोई जिक्र नहीं

अपने शानदार अभिनय पर वे
मन ही मन मुस्कुराते रहे
बीते दिनों की करते रहे जुगाली
कड़वाहटों को चबाते रहे ।

                        शरद कोकास  
 (चित्र गूगल से साभार । )