आज 24 अक्तूबर है .. हवा में कल रात थोड़ी ठंडक महसूस की मैने .. खिड़की से हवा का एक झोंका आया और उसने कहा .याद है तुम्हे, तुम्हारे मित्र कुमार अम्बुज ने इन्ही दिनों के लिये एक कविता लिखी थी ..‘ अक्तूबर का उतार ‘.. अरे हाँ ,मुझे याद आया , मैने रैक से अम्बुज का वह संग्रह निकाला “ किवाड़ “ उसीमें से यह कविता पढ़ रहा हूँ .जो कुमार अम्बुज ने 1988 में लिखी थी ....आप भी पढ़िये मेरे साथ..
अक्तूबर का उतार
छतों पर स्वेटरों को धूप दिखाई जा रही थी
ताज़ा धुले हुए चूने की गन्ध
झील में बतख़ की तरह तैर रही थी
यह एक खजूर की कूची थी जिसके हाथों
मारी जा चुकी थी बरसात की भूरी काई
और पुते हुए झक्क-साफ मकानों के बीच
एक बेपुता मकान
अपने उदास होने की सरकारी-सूचना के साथ
सिर झुकाये खड़ा था
चिकने भरे हुए गालों तक पहुंच रही थी
अंडे और दूध का प्रोटीन जेब खटखटा रहा था
खली और नमक की खुशबू
पशुओं की भूख में मुँह फाड़ रही थी
आदम-इच्छाओं में शामिल हो रहा था
हरे धनिये का रंग और अदरक का स्वाद
बाज़ार में ऊन और कोयले के भाव बढ़ रहे थे
रुई धुनकने वाले की बीवी के खुरदरे हाथ
सुई-डोरे के साथ
रज़ाई-गद्दों पर तेज़ी से चल रहे थे
( यही वह जगह होती है जहाँ सुई तलवार से
बढ़ई की भुजाओं की मछलियाँ
लकड़ी को चिकना करते हुए
खुशी से उछल रही थीं
तेज़ हो रही थी लोहा कूटने की आँच
खुल रहे थे बैलगाड़ियों के रास्ते
आलू की सब्ज़ी शाम तक चल जाने लायक इन दिनों में
एक मटमैली चिड़िया अपनी चोंच से
बच्चे की चोंच में दाना डाल रही थी
रावण का पुतला सालाना जश्न में जल चुका था
बाकी थी रोशनी और सजावट के लिये कुछ जगह
थोड़ी सी जगह
बच्चों के खेल के लिये निकल आई थी
और थोड़ी-सी पेड़ के नीचे एक बेंच पर
इस रोनी दुनिया में
मुस्कराये जाने की गुंजाइश के साथ
इमली का पेड़ लगातार हिल रहा था
यह सर्दियों की चढ़ाई थी
और अक्तूबर का यह चमकदार उतार था
जिस पर से एक पूरा शहर फिसल रहा था
जैसे रिसक-पट्टी से फिसलता है
एक बच्चा !
- कुमार अम्बुज
तो आप भी बक्सों से स्वेटर रज़ाई,कम्बल निकाल लीजिये और उन्हे धूप दिखाइये । और हाँ ..एक बात और कुमार अम्बुज कवि होने के अलावा एक चिंतक भी है । विगत दिनों धर्म को लेकर ब्लॉग्स पर एक बहस चली थी । शायद इसका सार्थक जवाब यहाँ मौजूद हो .. इस ब्लॉग कुमार अम्बुज में ।- आपका शरद कोकास
(चित्र गूगल से साभार )
(चित्र गूगल से साभार )