9 अक्तूबर 2010 नवरात्र - दूसरा दिन - वरिगोंड सत्य सुरेखा
इस नवरात्र में इस कविता उत्सव में बहुत सारे नये लोगों का आगमन हुआ है । मैं आप सभी का स्वागत करता हूं । कल प्रकाशित पद्मा सचदेव की कविता के बारे में गिरीश पंकज कहते हैं स्त्री लेखन की सही दिशा क्या हो सकती है , यह कविता तय करती है । रूपचन्द शास्त्री ने कहा यह परिवेश का सुन्दर चित्रण करती है । संगीता ने कहा पद्मा जी के बारे में जानना ,उन्हे पढ़ना सुखद अनुभूति है । रश्मि रविजा ने कहा पद्मा जी की रचना बहुत दिनों बाद पढी । सुशीला पुरी ने कहा यह कविता कई सवाल खड़े करती है । सागर ने इसे आज के संदर्भ में अच्छी कविता बताया । रन्जू भाटिया ने कहा पद्मा जी को पढ़ना अच्छा लगा । शिखा वार्ष्णेय ने कहा इस कविता की एक एक पन्क्ति छू जाती है । शोभना चौरे ने कहा पद्माजी उनकी पसन्दीदा कवयित्री हैं ।ताऊ रामपुरिया ने कहा कि इस कविता में पद्मा जी की खासियत के अनुरूप एक एक शब्द है । टी एस दराल ने पद्मा जी से इस शृंखला के श्रीगणेश को बेहतर बताया । महेन्द्र वर्मा ने पद्मा जी के धर्मयुग में प्रकाशन के दिनों की बात की । जे पी तिवारी , मनोज ,बबली ,कविता रावत ,सुज्ञ , अली ,राज भाटिया , देवेन्द्र पाण्डे , संजीव तिवारी ,वाणी गीत ,संजय भास्कर को यह कविता पसन्द आई । परमजीत सिंह बाली , अलबेला खत्री व मोनिका शर्मा को ने इसे अच्छी प्रस्तुति बताया ।
आज नवरात्र के दूसरे दिन प्रस्तुत है तेलुगु की युवा कवयित्री वरिगोंड सत्य सुरेखा की यह कविता । इनकी कवितायें विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं । वर्तमान में वारंगल में रहती हैं । इस कविता का तेलुगु से हिन्दी अनुवाद चेन्नै की कवयित्री आर शांता सुन्दरी ने किया है जो वर्तमान में दिल्ली में रहती हैं । लीजिये प्रस्तुत है वरिगोंड सत्य सुरेखा की यह सरल सी कविता जो दिखने में बहुत सरल है लेकिन समझने में बहुत कठिन है । वे बहुत मासूमियत से कुछ ऐसे सवाल करती हैं जिनके जवाब आज तक नहीं मिले हैं । जवाब में सिर्फ़ हंसी है । सही है , इन सवालों के जवाब में तो अच्छे अच्छे हँसना भूल जायेंगे ।
यह कविता “ समकालीन भारतीय साहित्य “ के अंक 101 से साभार ।
मैं भी हँसूँ
देख कर मुझे हँसते हैं सभी
उन्हे देख डर लगता है
हँसते हैं इसलिये नहीं
पर यह सोच कर
कि हँसने वाले मेरी पीड़ा पहचानते नहीं !
चाँद अंधेरे में रहता है
डर नहीं लगता उसे ?
पूछूँ तो सब हँसते हैं ।
रात भर अकेला रहता है
उस का साथी क्या कोई नहीं ?
पूछूँ तो सब हँसते हैं ।
सदा आग उगलते सूरज को
ठंडक कहाँ से मिल पाती है ?
पूछूँ तो सब हँसते हैं ।
बिना रुके बहने वाले झरने की
थकान कौन मिटाता है ?
पूछूँ तो सब हँसते हैं ।
हम धरती माँ की गोद में बैठते हैं
पर वह माँ कहाँ बैठती है ?
पूछूँ तो सब हँसते हैं ।
घूमते पहिये पर न चल सकने वाले हम
घूमती धरती पर कैसे दौड़ रहे हैं ?
पूछूँ तो सब हँसते हैं ।
हमे चलाने वाले को
चलाने वाला कौन है ?
पूछूँ
तो ज़ोर ज़ोर से हँसते हैं
एक भी सवाल का जवाब न दे कर
हँसने वालों को देख कर
मैं क्या करूँ ?
बस , मैं भी हँस देती हूँ !
- वरिगोंड सत्य सुरेखा