सोमवार, अप्रैल 02, 2012

पिछली 25 तारीख को भिलाई के कथाकार लोकबाबू के कथा संग्रह ' बोधिसत्व भी नहीं आये ' का विमोचन हुआ । संग्रह पर बात करते हुए कथाकार परदेशी राम वर्मा ने कहा कि लोकबाबू की कहानियों में एक पात्र रिक्शेवाला अवश्य होता है । दर असल यह साइकल रिक्शेवाला हमारे समाज का ही एक पात्र है सो हमारी कविता कहानियों में तो आयेगा ही । मुझे याद आया , एक कविता मैंने भी रिक्शेवाले पर लिखी थी । आप भी देखिये , एक कवि कैसे देखता है , रिक्शेवाले और रिक्शे में बैठने वाले को । जी , यह भी 1987 की ही कविता है ।

 रिक्शेवाला 


उसके पाँवों में इकठ्ठा ताकत
शाम को रोटी बन जायेगी
माथे से टपकता पसीना
नन्हे बच्चे के लिये दूध
आँखों के आगे गहराता
नसों से निकलता अन्धेरा
गवाह रहेगा
आनेवाली खुशहाल सुबह का

रिक्शे की गुदगुदी सीट पर
बैठने का सामर्थ्य रखने वाले लोग
राह चलते रोयेंगे
खाली जेबों का रोना
समय काटू बातों के बीच
पूछेंगे शहर के मौसम
और सिनेमा हॉल में लगी
नई फिल्म के बारे में
खस्ताहाल सड़कों को लेकर
शासन को गालियाँ देते हुए
उतरते वक़्त थमा देंगे
रेज़गारी के साथ
उसके लुटेरे होने का प्रमाणपत्र

वह जानता है
इन थुलथुल व्यक्तियों के पास
लिजलिजी दया के अलावा
और कुछ नहीं है ।
                        - शरद कोकास 
( चित्र गूगल छवि से साभार )