1989 की एक और कविता जिसके लिये आलोचक सियाराम शर्मा ने कहा था कि यह कविता मध्यवर्ग की मानसिकता के नये अर्थ खोलती है । इसमें प्रस्तुत सितारों का बिम्ब और भी जाने किस किस की मानसिकता को प्रकट करता है , आप इसमें नये अर्थ ढूंढ सकते हैं , क्या यह आज भी प्रासंगिक नहीं है ?
शरद
कोकास
57 सितारे
अन्धेरी रातों में
दिशा ज्ञान के लिये
सितारों का मोहताज़ होना
अब ज़रूरी नहीं
चमकते सितारे
रोशनी का भ्रम लिये
सत्ता के आलोक में टिमटिमाते
एक दूसरे का सहारा लेकर
अपने अपने स्थान पर
संतुलन बनाने के फेर में हैं
हर सितारा
अपने ही प्रकाश से
आलोकित होने का दम्भ लिये
उनकी मुठ्ठी में बन्द
सूरज की उपस्थिति से बेखबर है ।