लोकल ट्रेन को मुम्बई की जीवन रेखा कहा जाता है । बी ई एस टी वहाँ की बस सर्विस है । जैसे ही दिन निकलता है मुम्बई की अधिकांश जनता बस और लोकल ट्रेन में नज़र आती है । और देर रात तक इनकी आवाज़ मुम्बई के कानों में गूंजती रहती है । लोकल ट्रेन में सफर का अपना ही आनन्द है । बेतहाशा भीड़ , उमस ,समय की पाबन्दी के बावज़ूद जनता इस सफर का मज़ा लेती है । लोकल ट्रेन को विषय बना कर कहानियाँ लिखी गई हैं और फिल्में भी बनी हैं । मुझे एम. के. रैना की फिल्म " 27 डाउन " विशेष रूप से याद है जो रमेश बक्षी के उपन्यास " अठारह सूरज के पौधे " पर आधारित थी । इस कथा में नायक को नायिका लोकल ट्रेन में ही मिलती है ।
पिछले दिनों मुम्बई गया था तो अनुभ्राता आशीष और भावज श्वेता ने बताया कि लोकल ट्रेन में यात्रा करते हुए लोगों की ज़िन्दगी बीत जाती है । यात्रा करने वाले लोगों में कई लोग ऐसे हैं जो बरसों से इस लोकल ट्रेन में निश्चित डिब्बे में निश्चित स्थान पर बैठकर या खड़े रह्कर ही यात्रा करते हैं । वे आपस में प्रतिदिन एक दूसरे को देखते हैं और नाम तक नहीं जान पाते फिर भी एक दूसरे का अभिवादन ज़रूर करते हैं ।
मुझे तो बस और ट्रेन में यात्रा करना वैसे भी रोमांचक लगता है । मै रेल की आवाज़ में स्वर मिलाकर गुनगुनाने लगता हूँ । आसपास के लोगों ,और खिड़की से बाहर दिखाई देने वाले द्रश्यों पर जैसे ही ध्यान केन्द्रित करता हूँ कविता अपने आप सूझने लगती है । " लोहे का घर " शीर्षक से रेल पर लिखी मेरी कवितायें आप पढ़ ही चुके हैं । लीजिये अब पढ़िये मुम्बई की बस और लोकल ट्रेन में यात्रा करते हुए यह दो कवितायें ।
सिटी पोयम्स मुम्बई- बी.ई.एस.टी.
न उमस महसूस हो रही थी वातावरण में
न घुटन का कहीं नामोनिशान था
चिपचिपाहट भरा पसीना भी
भीड़ की देह से महक नहीं रहा था
धूल की भी हिम्मत नहीं थी
कि उड़कर सर पर सवार हो
यह सर्दियों की एक शाम थी
और समन्दर की लहरों के जागने का वक़्त था
बस की खिड़की से आये हवा के ताज़े झोंके ने
हमारी बातचीत में दखल देते हुए कहा
भीड़ के बीच भी प्रेम
अपनी अलग दुनिया बसा लेता है
जिसमें कोई जगह नहीं होती
दुख,दुश्चिंता और दुर्दिनों के लिये
बस ..चलते चलो इसी तरह
अभी आखरी स्टॉप बहुत दूर है ।
सिटी पोयम्स मुम्बई – लोकल ट्रेन
वह गायों और मनुष्यों के घर लौटने का वक़्त था
बहुत ज़्यादा फ़र्क नहीं था
उस भीड़ और घर लौटते पशुओं के रेवड़ में
कामकाजी माँओं को चिंता थी बच्चों की
पिता एक दिन गुज़र जाने के सुख से लबालब थे
और बच्चों के लौटने का वक़्त नहीं हुआ था
फिर भी सब घर पहुँचकर सुरक्षित हो जाना चाहते थे
ऐसे में तुम सवार हुई लोकल ट्रेन में
एक हाथ में कॉफी का मग
और दूसरे हाथ में सैंडविच लिये
अपनी पेंसिल हील सैंडिल की धुरी पर
घूमती हुई पृथ्वी सा संतुलन सम्भाले
अद्भुत हो सकता है यह दृश्य
वे और अचरज से भर जायेंगे
जब वे देखेंगे तुम्हे
अलग अलग हाथों में
कमल , कलश , धन का पात्र लिये लक्ष्मी की तरह
पर्स ,अखबार ,छत्री, कैरीबैग और भाजी का झोला लिये ।
- शरद कोकास
हाँ.... चित्र में लोकल ट्रेन में पिता की गोद में बैठकर हुक पकड़े हुए यात्रा करती हुई नन्ही भतीजी आकांक्षा का यह चित्र है । अन्य चित्र गूगल से साभार । अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के पश्चात लोकल ट्रेन में यात्रा का एक मज़ेदार किस्सा यहाँ भी पढ़ें ।