बुधवार, जनवरी 13, 2010

मेरे चाचा - मामा का गाँव मुम्बई

                              मामा का गाँव                  
मैं बचपन से मुम्बई जाता रहा हूँ । उस समय से जब माटुंगा रेल्वे वर्कशॉप में बड़े मामाजी स्व.दयानन्द शर्मा वर्क्स मैनेजर थे और माटुंगा में रेल्वे के एक बड़े से  बंगले में रहा करते थे । मैने मुम्बई को सबसे पहले "मामा के गाँव "की तरह जाना । फिर 1975 में चाचाजी श्री वीरेन्द्र कोकाश भी वहाँ आ गये सबर्बन रेल्वे में । फिर बैतूल से छाया बुआ  विवाह के पश्चात वहीं आ गई  और मधु दीदी  भी । सभी के यहाँ कुछ न कुछ आयोजन होते रहते थे जो  मुम्बई में छुट्टियाँ बिताने के लिये  सबब बन जाते थे और इस तरह  लगभग हर साल मुम्बई का एक चक्कर लग ही जाता था ।
फिर कुछ ऐसा हुआ कि अपनी रोजी-रोटी के चक्कर में उलझता  गया और मुम्बई जाना लगभग बन्द हो गया । इस बार बरसों बाद मुम्बई जाना हुआ तो वहाँ पहुंच कर ऐसा लगा जैसे अपने किसी बचपन के दोस्त से बरसों बाद मुलाकात हुई हो ।  मुम्बई मैं कभी पर्यटक की तरह  नहीं गया  इसलिये मैने मुम्बई को  एक पर्यटक की तरह कभी नहीं देखा ,न ही उस तरह जैसे कि अक्सर लोग फिल्मों में और धारावाहिकों में मुम्बई को देखते हैं । बचपन से ही पैदल घूमने की आदत रही सो मैं और मेरा ममेरा भाई अनिल हम दोनो जेब में लोकल का फ्री पास और एक दस का नोट रखे दिन भर स्टेशन दर स्टेशन भटकते रहते थे ।
इस बार मुम्बई में भटकते हुए दस-बारह छोटी छोटी कवितायें लिखीं । यह इस शहर की खासियत है कि यहाँ के दृश्य देखकर कविता अपने आप भीतर जन्म लेने लगती है । कई बार तो मुझे लगता है कि मेरे भीतर के कवि ने भी कहीं समन्दर के किनारे मुम्बई में ही जन्म लिया होगा... इसलिये कि स्कूल के उन दिनों जब मैं कविता लिखना सीख रहा था और शिल्प का मुझे बिलकुल ज्ञान नहीं था एक कविता मुम्बई में भी रची गई थी समन्दर के किनारे के दृश्य देख कर ।
मैने बचपन से आज तक जो कुछ भी लिखा है सब कुछ मेरी डायरियों में सुरक्षित है । सो कविता की इस पहली डायरी से बचपन में  लिखी यह कविता यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ । कविता में शिल्प या कथ्य या विचारों की परिपक्वता को कृपया नज़रअन्दाज़ कर दीजियेगा और एक किशोर की कविता की तरह ही इसे पढियेगा । इस बार की मुम्बई यात्रा में जो कवितायें मैने “ सिटी पोयम्स मुम्बई ” के नाम से लिखी हैं वे दो –तीन दिनों बाद दूंगा ।
                                   

                                                कोलाहल
लहरों के पार डूबता सूर्य का जीवन
उसकी अस्पष्ट वाणी 
             दबकर रह गई   
             कोलाहल में 

प्रकृति के सागर से विशालतम
रेत को रौन्दता हुआ यह जनमानस का सागर
यह कोलाहल
इसमें सिमट आई हैं
खुशी की किलकारियाँ
आनन्द की अनुभूति
प्रेम की गुनगुनाहट
और क्रोध की चिनगारियाँ

क्या नहीं है इसमें
प्यार के झूठे –सच्चे वादे
साथ साथ जीने की कसमें
दिखावे की रसमें
इसमे निहित है कुछ उभरती आवाज़ें
मिल के भोपुओं की
जिनकी चिमनियों से निकल रहा है
अय्याशी का धुआँ
ये अट्टहास गूंजता है प्रासादों में
छिपा है स्वार्थ का राक्षस
ऐश्वर्य की बू
आश्वासनों और वादों में
लेकिन......................
इन बड़ी बड़ी आवाज़ों के पीछे
कुछ ऐसी आवाज़ें भी हैं
जो शायद डूब चुकी हैं
ये उठ नहीं सकतीं
क्योंकि इनमें है
दिनभर के श्रम की थकान
पेट की आग
और...............................
एक मांग
अन्न वस्त्र और मकान

इसमें है दर्द की स्वर लहरियाँ
झोपड़पट्टी में ज़िन्दा लाश सी
ग़रीबी की ठठरियाँ
दुख की आहें
और..............................
बेबसी का मौन
पर इन दबे स्वरों को सुनेगा कौन ?

उनकी पहुंच नहीं आसमानों तक
उनकी पहुंच नहीं इन कानों तक
ये आवाज़ें दबती जायेंगी अन्धेरे के साथ
इस तट की रेत में
और लहरों से टकराकर
इनका अस्तित्व यूँ ही समाप्त हो जायेगा ।

                                    - शरद कोकास
                                    c/o Mr D N Sharma c-97 wenden avenue matunga ,mumbai
                              
( प्रथम बार सार्वजनिक की गई यह अनगढ़ कविता अगर आपने यहाँ तक पढ़ ही ली है तो कृपया इसके लिये मेरा धन्यवाद स्वीकार करें – शरद कोकास )