शनिवार, सितंबर 19, 2009

औरतों को डर नहीं लगता कुछ भी कह जाने में


नवरात्रि पर्व पर विशेष कविता श्रंखला -समकालीन कवयित्रियों द्वारा रचित कवितायें   



            दुर्गा की प्रतिमाओं को ठेलों ,ट्रैक्टर ट्रालियों में सहेजकर लाते हुए देखा तो विचार आया कितनी सुन्दर और भव्य प्रतिमायें हैं लेकिन कितनी नाज़ुक , केवल मिट्टी और पानी से बनी हुई .. ज़रा सी ठोकर लग जाये तो टूट जायें । लेकिन हम इन्ही प्रतिमाओं को शक्ति का प्रतीक मानकर इनकी उपासना करते हैं इनसे शक्ति प्राप्त करते हैं । इस द्वन्द्व पर विचार करते हुए  सुविख्यात कवयित्री अनामिका  द्वारा सम्पादित पचास कवयित्रियों की कविताओं का संकलन “ कहती हैं औरतें “ के पन्ने पलट ही रहा था कि आमुख में उद्धृत  अनामिका जी की कविता पर नज़र पड़ी .. “ औरतों को डर नहीं लगता / कुछ भी कह जाने में / उनको नहीं होती शर्मिन्दगी मानने में / कि उनमें पानी भी है मिट्टी भी / पानी और मिट्टी : इन दोनो में से किसीका / कोई ओर छोर नहीं होता / लिखती हैं औरतें इसी से धारावाहिक चिठ्ठियाँ पानी और मिट्टी / खुद एक धारावाहिक चिठ्ठी ही तो हैं / ईश्वर की – हम सबके नाम । “
            मुझे लगा यह स्त्री तो सचमुच दुर्गा की जीती जागती प्रतिमा है मिट्टी और पानी से बनी हुई लेकिन पुरुष न उसे सहेजना जानता है न उसके भीतर की ताकत को पहचानता है ..फिर शक्ति की उपासना का दिखावा क्यों ? मैने सुबह सुबह अनामिका जी को फोन लगाया और अनुमति ली कि मै इस संकलन से पूरे नवरात्र तक प्रतिदिन एक कवयित्री की कविता प्रस्तुत करना चाहता हूँ । उन्होने कहा “ मातृशक्ति की उपासना  एक कवि इसी तरह से ही तो कर सकता है । “
            प्रस्तुत है क्वाँर माह की इस प्रतिपदा पर नवरात्र के प्रथम दिन अनामिका जी की यह कविता “ स्त्रियाँ” – शरद कोकास  

                                    स्त्रियाँ

पढ़ा गया हमको
जैसे पढ़ा जाता है कागज़
बच्चों की फटी कॉपियों का
चनाजोरगरम के लिफाफे बनाने के पहले !
देखा गया हमको
जैसे कि कुफ्त हो उनीदे
देखी जाती है अलार्म घड़ी
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद


सुना गया हमको
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फिल्मी गाने  
सस्ते कैसेटों पर
ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में


भोगा गया हमको
बहुत दूर के रिश्तेदारों के
दुख की तरह
एक दिन हमने कहा
हम भी इंसा हैं -
हमें कायदे से पढ़ो एक - एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बी ए के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन
देखो तो ऐसे
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है
बहुत दूर जलती हुई आग !

सुनो हमें अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती है
नई – नई सीखी हुई भाषा !


इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई
एक अदृश्य टहनी से
टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफवाहें
चीखती हुई चीं – चीं
‘ दुश्चरित्र महिलायें ,दुश्चरित्र महिलायें –
किन्ही सरपरस्तों के दम पर फूली फैली
अगरधत्त जंगली लतायें !
खाती –पीती सुख से ऊबी
और बेकार बेचैन , आवारा महिलाओं का ही
शगल है ये कहानियाँ और कवितायें ..!
फिर ये उन्होंने थोड़े ही लिखी हैं । ‘
(कनखियाँ इशारे, फिर कनखी )
बाकी कहानी बस कनखी है।


हे परमपिताओं,
परमपुरुषों -
बख्शो ,बख्शो, अब हमें बख्शो !

                        -अनामिका

(आधी आबादी की आवाज़, इन कविताओं में प्रतिदिन अवश्य पढ़ें यह निवेदन । आपका – शरद कोकास )