बुढ़ापा हर मनुष्य के लिये दुखदायी होता है । उम्र के इस दौर में पहुंचे बगैर हम कल्पना नहीं कर सकते इस उम्र के कष्टों की । इस उम्र में हर व्यक्ति दूसरों पर निर्भर हो जाता है । स्त्री तो खैर आर्थिक रूप से भी दूसरों पर निर्भर रहती है । इसलिये वह प्रार्थना करती है कि हे भगवान चलते फिरते उठा ले । लेकिन हम इन बूढ़ों का दर्द कहाँ समझते हैं । हमारे पास वक़्त ही कहाँ है इनके लिये । सेवा तो दूर कुछ देर इनके पास बैठकर हम इनकी बात तक सुनना पसंद नहीं करते ,भूल जाते हैं कि एक दिन हम भी बूढ़े होंगे । सास-बहू के धारावाहिकों से अलग बूढ़ी स्त्री का एक चित्र प्रस्तुत किया है कवयित्री निर्मला गर्ग ने अपनी इस कविता मे जिसका शीर्षक है "चश्मे के काँच " । आइये अपनी आंखों पर पड़ा चश्मा उतारकर इसे देखने का प्रयास करें ।सविता सिंह की कविता "मन का दर्पण" पर ललित शर्मा,अरविन्द मिश्रा,मिथिलेश दुबे ,आशा जोगलेकर,चन्द्रमोहन गुप्त की प्रतिक्रिया मिली आपसभीका धन्यवाद -शरद कोकास ।
नवरात्रि पर विशेष कविता श्रंखला-समकालीन कवयित्रियों द्वारा रचित कवितायें-छठवाँ दिन
चश्मे के काँच
बूढ़ी औरत खो बैठी है अपना चश्मा
चौहत्तरवें बरस की उम्र में
उसकी झुर्रीदार अंगुलियाँ टटोलती हैं
कुछ न कुछ हर वक़्त
आले,तिपाई,बिस्तर
आसमान भी बाहर नहीं रहता उसकी ज़द के
चश्मे के काँच बाई-फोकल थे
नज़दीक होने का मतलब वहाँ आत्मीय होना नहीं था
बहुधा तो वह उबाऊ और ग़ैरज़िम्मेदार था
न दूर होने का मतलब दृश्यों से था
वहाँ थी यादें
वहाँ थे रिश्ते
अनुभवों के छोटे मगर गहरे तालाब थे
चश्मे का फ्रेम बना था उन्नीस सौ चवालीस में
तब फ्रेम टिकाऊ मगर कम खूबसूरत होते थे
वेरायटी का तो सवाल ही नहीं था
यही खयाल बूढ़ी का प्रेम के विषय में भी है ।
-निर्मला गर्ग