शनिवार, नवंबर 28, 2009

रेल के डिब्बे में रात होते ही गठरी हो जाता है आदमी


                हमारा समाज भी एक  रेल के डिब्बे की तरह ही है । आपने सोचा है कभी कि क्लास या वर्ग की अवधारणा सर्वप्रथम आम आदमी ने रेल के डिब्बे से ही जानी । यह भी अनायास नहीं हुआ कि एक ज़माने में थर्ड क्लास कहलाने वाला डिब्बा अपग्रेड कर सेकंड क्लास कर दिया गया लेकिन उसमें सफर करने वाले का क्लास वही रहा । आज भी आम आदमी उसी क्लास में सफर करता है जिसे जनरल क्लास कहा जाता है ,इसलिये कि इससे ज़्यादा खर्च करने की उसकी क्षमता नहीं है । लेकिन इस आम आदमी का भी यह ख्वाब होता है कि वह कभी न कभी खास कहलाये .. वह धीरे धीरे पैर पसारता है और .. फिर कहीं न कहीं अपनी जड़े जमाने की कोशिश करता है .. रेल में जगह छिन जाने का डर और शहर में हमेशा उजड़ जाने का डर लिये वह अपनी अस्थायी बस्ती बसाता है  .. इस क्षणिक उपलब्धि को भी वह उत्सव की तरह मनाता है .. हँसता है ,गाता है, मुस्कुराता है..और इस उत्सव के साथ ज़िन्दगी की रेल चलती रहती है ।
             हाँ इन दिनों यह आम आदमी किसी और कारण से भी मुस्कुरा रहा है.. बता सकते हैं आप क्यों ? चलिये इस कविता को पढ़कर कुछ अन्दाज़ लगाइये ...
                   
                  लोहे का घर-चार
 
रेल के डिब्बे में
रात होते ही
गठरी हो जाता है आदमी
भीतर मैले कुचैले विचार समेटे हुए

किसी की टांगों पर
किसी का सर
या सर पर टांगे हों
तब भी
कोई बुरा नहीं मानता

टांग पसारने की
उपलब्धि हासिल होते ही
मुस्कुराता है आदमी
चलती है रेल ।
                   शरद कोकास