यह उन दिनों की कविता है जब नौकरी भी आठ घंटे करनी होती थी और मजदूरी के भी आठ घंटे तय होते थे , शोषण था ज़रूर लेकिन इतना नहीं जितना कि आज है । कुछ अजीबोगरीब बिम्बों के साथ लिखी यह कविता ...
59 दो तिहाई ज़िन्दगी
भुखमरी पर छिड़ी बहस
ज़िन्दगी की सड़क पर
मज़दूरी करने का सुख
कन्धे पर लदी अपंग संतान है
जो रह रह मचलती है
रंगीन गुब्बारे के लिये
कल्पनाओं के जंगल में ऊगे हैं
सुरक्षित भविष्य के वृक्ष
हवा में उड़ –उड़ कर
सड़क पर
आ गिरे हैं
सपनों के कुछ पीले पत्ते
गुज़र रहे हैं सड़क से
अभावों के बड़े- बड़े पहिये
जिनसे कुचले जाने का भय
महाजन की तरह खड़ा है
मन के मोड़ पर
तब
फटी जेब से निकल कर
लुढ़कती हुई
इच्छाओं की रेज़गारी
बटोर लेना आसान नहीं है
मशीनों पर चिपकी जोंक
धीरे-धीरे चूस रही है
मुश्किलें हल करने की ताकत
चोबीस में से आठ घंटे बेच देने पर
बची हुई दो तिहाई ज़िन्दगी
कई पूरी ज़िन्दगियों के साथ मिलकर
बुलन्द करती है
जीजिविषा
रोटी और नींद का समाधान ।
शरद
कोकास