बुधवार, जनवरी 06, 2010

नये साल में "लोहे के घर" में यात्रा करते हुए एक कविता

कई दिनों के बाद यात्रा से लौटा हूँ ..मुम्बई गया था ,बीमार चाचा जी से मिलने । व्यस्तता और भागदौड़ कुछ ऐसी रही कि ब्लॉगर मित्रों से और कवि कथाकार मित्रों से मुलाकात ही नहीं कर पाया । जाते समय सोचता रहा कि सबसे मिलूंगा लेकिन यह सम्भव नहीं हुआ । यहाँ तक कि वहाँ मेल देखने का भी समय नहीं मिला । बीच में एक दिन समीर लाल जी से सम्वाद हुआ तो उन्होने कहा " चाचा जी का खयाल रखिये, उन्हे पूरा समय दीजिये । हमारे बुज़ुर्गों से बड़ी हमारी कोई धरोहर नहीं हो सकती ..बाक़ी सब तो चलता रहेगा ।" सो यह हिदायत भी ध्यान में रही ।
परसों ही रेल से लौटा हूँ । यात्रा करते हुए फिर इस कवि के दिमाग़ में बहुत सारे बिम्ब इकठ्ठा हो गये हैं। कुछ कवितायें मुम्बई की ज़िन्दगी पर भी मन में पक रही हैं । लोहे के घर में बैठकर यात्रा करते हुए फिर कुछ नये लोग मिले हैं । बहुत पहले एक कविता लिखी थी रेल में बिना टिकट यात्रा करने वाले एक ग़रीब मजदूर को देख कर जो मेरे कविता संग्रह " गुनगुनी धूप में बैठकर " में शामिल है । अभी लौटते हुए उस कविता के लिये एक दृश्य मिल गया ,सो कविता और साथ में यह चित्र आपके लिये । शायद आपको आठ पंक्तियों की इस कविता में व्यवस्था और उसके प्रति आक्रोश के निर्वाह की एक झलक मिल जाये । आप सभी को नये साल की हार्दिक शुभकामनायें .... शरद कोकास


लोहे का घर - सात


जब वह काले कोट वाला
कैफ़ियत मांगेगा तुमसे
बग़ैर टिकट यात्रा की
तुम चुपचाप 
हवाले कर दोगे उसके
जेब में पड़ी
बची हुई बोतल


तुम पर तो वैसे ही
थकान हावी है ।


- शरद कोकास