गुरुवार, मार्च 18, 2010

नवरात्रि तृतीय दिवस - अन्ना अख़्मातोवा की कविता

                                             
                         18.03.2010 । नवरात्रि के दूसरे दिन 17.03.2010 को प्रकाशित विस्वावा शिम्बोर्स्का की कविता पर सर्वप्रथम अपने विचार व्यक्त किये संजय भास्कर ने । दिनेशराय द्विवेदी ने इसे इस युग का छद्म उद्घाटित करती हुई कविता बताया ।रश्मि रविजा ने कहा सच है...खुद को भी बस उतना ही देखते हैं जितना..दूसरों को दिखाना चाहते हैं.। रंजु भाटिया ने कहा कमाल के एहसास हैं इस रचना में ।चन्दन कुमार झा ने कहा एक छोटा सा बायोडाटा जीवन की कितनी कमजोरियो का पर्दाफाश कर देता है, एक छोटा सा बायोडाटा बताता है कि आदमी ने कितने समझौते किये ज़िन्दगी में । खुशदीप सहगल ने कहा नवरात्र पर शक्ति की देवी की उपासना का इससे अच्छा और रचनात्मक तरीका और कोई हो ही नहीं सकता था । शोभना चौरे , सदा , विजय प्रकाश ,समीर लाल,अमिताभ मीत ,राज भाटिया ,काजल कुमार को यह कविता बहुत पसन्द आई ।
                          अशोक कुमार पाण्डेय  ने कहा शिम्बोर्स्का की सबसे बड़ी खूबी है किसी भी साधारण से विषय को उठाकर उसे एक अत्यंत समृद्ध और अर्थवान कविता में तब्दील कर देने की अद्भुत क्षमता । उनकी एक कविता गणितीय पाई पर है…ख़ैर अगर बात इस कविता की करें तो यह मनुष्य के जीवन के ज़रूरी और आलंकारिक सत्य को अलग-अलग कर उद्घाटित कर देती है। हम सब जिस ज़िंदगी को जीना चाहते हैं, जिन गुणों को अर्जित करने में सबसे ज़्यादा ख़ुशी महसूस करते हैं बाज़ार में अक्सर उसकी क़ीमत नहीं होती। एक कवि मित्र अक्सर यह क़िस्सा सुनाते थे कि एक बार जब यह पूछने पर कि आप करते क्या हैं उन्होंने कहा कवि हूं तो अगले ने पूछा कवि तो ठीक पर करते क्या हैं? यह कविता उसी द्वंद्व की महाकाव्यात्मक अभिव्यक्ति है। जो लोग यह मानकर चलते हैं कि अनुवाद कविता का पूरा मज़ा नहीं लेने देता वे भी अगर पूर्वाग्रह से मुक्त हो इसे हिन्दी में लिखी कविता समझकर पढ़ेंगे तो निश्चित तौर पर अशोक भाई के स्तुत्य श्रम को पहचान पायेंगे।
वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा किसी कविता का इतना सटीक और सरल अनुवाद...बधाई और धन्यवाद के पात्र हैं अशोक जी. हमें विभिन्न देशों की कवियत्रियों और उनकी कविताओं से रूबरू कराने के लिये आपका जितना धन्यवाद करें, कम है ।बेचैन आत्मा ने कहा कविता की व्यंग्यात्मक शैली अद्भुत है. सबसे बड़ी बात यह कि आज भी यह प्रासंगिक है और कल भी रहेगी.शायद इसे ही कालजयी कविता कहते हैं. आदमी के दोहरे जीवन को अभिव्यक्त करती इस कविता के लिए आपका और कबाड़खाना ब्लॉग के श्री अशोक पाण्डेय जी का आभारी हूँ ।रचना दीक्षित ने कहा शरद जी आज फिर से, क्या नवरात्रों में आज के युग की नवदुर्गाओं से परिचय करवाने की मुहीम छेड़ी है यकीन माने बहुत बेहतरीन है ये प्रस्तुति भी. कितनी शालीनता से इतना कटु सत्य उजागर कर दिया इस कविता में. शायद कल एक और कड़ी....।
                         तो लीजिये आज नवरात्रि के तीसरे दिन प्रस्तुत है यूक्रेन रूस की कवयित्री अन्ना अख़्मातोवा की कविता .........


लक्ष्मण रेखा से
आगे चली गई थी
बर्फ हो गए थे पांव
दाएँ हाथ का दस्ताना
बाएँ हाथ में पहन लिया

जितनी आगे बढ़ी
निगाहें टेढ़ी होती गईं

एक सपाट चेहरे वाले ने कहा
“ मेरे साथ मरना चाहोगी “
नमक हराम हूँ नख से शिख तक
गिरगिट की तरह रंग बदलती हूँ
हूँ ही ऐसी , जवाब दिया था
हाँ मेरे प्यार के देवता ,
मैं मरना चाहती हूँ ,तुम्हारे साथ

बीटिंग रीट्रीट
आखिरी धुन
अन्धेरे में

शयन कक्ष की खिड़की से झाँकती हूँ
धुन्धले प्रकाश में
सारस का एक जोड़ा उड़ा जा रहा है ।

                        अन्ना  अख़्मातोवा

 अन्ना अख़्मातोवा का परिचय : 11 जून 1889 को जन्मी यूक्रेनिया रूस की कवयित्री अन्ना अख़्मातोवा ने 11 साल की उम्र में पहली कविता लिखी । माता पिता से अलगाव ,वैवाहिक जीवन में तनाव , युद्ध निर्वासन, क्रांति , प्रतिक्रांति उसके परिणाम ,स्वदेश वापसी के बीच उनका लेखन चलता रहा । उनकी कविता परिवार के इर्द गिर्द रहती है ,लेकिन उसमे जैसे किसी को जवाब देने की ताकत है । 1912 में पहला संग्रह “ईवनिंग” 1917 में “ ए वाइट बर्ड फ्लाइट “ 1922 में “प्लेंटेन “ व “एनो डोमिनी “ 1962 में” ए पाएम विदाउट हीरो “ उनके चर्चित कविता संग्रह हैं । 5 मार्च 1966 को 76 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ ।
ज्ञानरंजन जी की पत्रिका “ पहल “ के 66 वे अंक में प्रकाशित इस कविता का अनुवाद किया है श्री रजनीकांत शर्मा ने । पहल से यह कविता साभार । आपका – शरद कोकास
( अन्ना अख़्मातोवा व उनके परिवार का चित्र गूगल से साभार )