बुधवार, सितंबर 23, 2009

सच का सामना कीजिये "सच के दर्पण" में

नवरात्रि पर्व पर विशेष कविता श्रंखला-समकालीन कवयित्रियों द्वारा रचित कवितायें-पाँचवा दिन

नवरात्रि के चौथे दिन प्रकाशित शुभा की कविता " मैं हूँ एक स्त्री " पर तो अच्छी खासी बौद्धिक बहस छिड़ गई है । इस बहस में भाग ले रहे हैं सुश्री निर्मला कपिला ,रंजना ,सर्वश्री ललित शर्मा,दिनेश राय द्विवेदी ,गिरीश पंकज ,विनोद कुमार पाण्डेय ,अशोक कुमार पाण्डेय ,राज भाटिया ,समीर लाल ,मिथिलेश दुबे दीपक मशाल .विनय शंकर चतुर्वेदी ,चन्द्रमोहन गुप्त और मुनीश । द्विवेदी जी ने जिस "ब्राह्मणों की दुनिया " फ्रेज़ को नवीन प्रयोग कहा है अशोक ने उसका सही विश्लेषण किया है । भाटिया जी को समझने में ज़रा मुश्किल हुई यह कविता ब्राह्मणों के खिलाफ है या पुरुषों के खिलाफ । इसे स्पष्ट किया गया कि यह उस पुरोहितवाद के खिलाफ है जो आज नव साम्राज्यवादी रूप में दक्षिणपंथ के उभार के साथ फिर सर उठा रहा है अन्यान्य रूपों में।समीर लाल जी ने इस कविता में व्यक्त आक्रोश को ज्वालामुखी की संज्ञा  दी । बहरहाल यह बहस तो सहस्त्राब्दियों से चली आ रही है । इस पर आगे भी बात होती रहेगी  । फिलहाल पाँचवे दिन प्रस्तुत है कवयित्री सविता सिंह की कविता " सच का दर्पण " । आइये इसमे अपना चेहरा देखें । आपका -शरद कोकास                                                                                

                                          सच का दर्पण                                                                         
                                                                                                                                                

बहुत सुबह जग जाती हैं मेरे शहर की औरतें
वे जगी रहती हैं नींद में भी
नींद में ही वे करती है प्यार, घृणा और संभोग
निरंतर रहती है बंधी नींद के पारदर्शी अस्तित्व से
बदन में उनके फुर्ती होती हैं
मस्तिष्क में शिथिलता
उनके हाथ मज़दूरों की तरह काम करते हैं
बनी रहती हैं फिर भी अभिजात संभ्रांत वे
नाश्ता बनाती हैं सुबह – सुबह
भेजती है मर्दों को दफ्तर
बच्चों को स्कूल
फिर बंध जाती है पालतू-सी
सुखी – दुखी अपने घरों से
दोपहर कभी उच्छृंखल नहीं लगती उन्हें
मनहूसियत भले घेर ले पूरे दिन को
हर पल की तरह वह एक पल होता है उनके लिए
गुज़र जाने वाला

शाम होती है
सड़को पर जल जाती है बतियां
इंतज़ार करती हैं मेरे शहर की औरतें
खिड़कियों से देखती बाहर
देखती शहर के शोरगुल के बीच से गुज़रते जुलूस को
जो त्यौहारों का कुतूहल पैदा करता है उनमें
लौट आते है मर्द, बच्चे
पहले दिन से ज्यादा गंभीर ज्यादा बुध्दिमान
लौट नहीं पातीं अपने भीतर से औरतें
उनके अंदर बुझा रहता है आत्मा का प्रकाश
अंधेरे रहते है लगातार उन पर सवार
अंधेरी सुरंग–सा फैला रहता है उनमें सभ्यता का भय
किसी भय में जागती होती है नींद की देवी
जिसमें तैरती रहती हैं छायाएं मृत्यु की
छाए रहतें हैं बड़े डैनों वाले पक्षी उनके मन के आकाश में
उनके एकांत का जंगल
काटता रहता है स्वयं अपने पेड़
रात-बिरात पैदा करता है खौफ़नाक आवाजें
डरी रहती है बिस्तर में भी अपने पुरुषों के संग
बेवजह ख़लल नहीं ड़ालती उनकी नींद में
रहती हैं सेवारत बरसाती प्रेम सहिष्णुता
चाहिए उन्हें वैसे भी ज्यादा शांति
बहुत कम प्रतिरोध अपने घरों में
फिर भी
अपने एकांत के शब्दरहित लोक में
एक प्रतिध्वनि – सी
मन के किसी बेचैन कोने से उठती जल की तरंग-सी
अपने चेहरे को देखा करती है
एक दूसरे के चेहरे में
बनाती रहस्यमय ढंग से
एक दूसरे को अपने सच का दर्पण ।
                                                                                                                                            

                    सविता सिंह