मंगलवार, अप्रैल 06, 2010

कूकते कूकते चुप क्यों हो जाती है कोयल


                 ग्रीष्मागमन हो रहा है । किसी दिन नींद से जल्दी जागिये और सुबह सुबह कहीं खेतों की ओर निकल जाइये , ठंडी ठंडी हवा , नींद  से जागा हुआ रास्ता , टहलने निकले लोग और इनके बीच किसी अमराई से आती कोयल की कूक , आपको ज़िन्दगी का एक नया अर्थ देती हुई प्रतीत होगी । कोयल जब कूकती है तो लगातार कूकती है और जब आप ध्यान देना बन्द कर देते हैं तो अचानक चुप हो जाती है । मैं बचपन में यह खेल खेलता था ..कोयल की चुप्पी के क्षण गिनने का  । कोयल की कूक से भरी सुबह को सुहानी सुबह इसीलिये तो कहते हैं ना कि  सुबह  सब कुछ भला  भला सा लगता है । सुबह सुबह कोई कुविचार हमारे दिमाग़  में  नहीं आता, बिलकुल साफ –सुथरी स्लेट की तरह होता है हमारा अवचेतन । हम उमंग और उत्साह से भरे होते हैं ।ऐसा लगता है कि ज़िन्दगी का असली आनन्द तो यही है ।  
            लेकिन मैं क्या करूँ .. सुबह सुबह जब कोयल की कूक सुनता हूँ तो किसान की बेबसी याद आती है , रातपाली से लौटते हुए मज़दूर को देखता हूँ तो उसके शोषण का खयाल आता है , गाँव के बच्चों को सुबह सुबह खेलते हुए ,और पढ़ते हुए देखता हूँ तो सोचता हूँ  क्या इनका जीवन भी अपने माता –पिता की तरह ही बीतेगा ? क्या ये भी आगे चलकर किसी ज़मीन्दार,  किसी कारखाने के मालिक के शोषण का शिकार बनेंगे ? क्या यह भी भाग्यवाद है कि किसी के पास सब कुछ और किसी के पास कुछ भी नहीं ? चलिये  कोयल की कूक सुनते हुए इस बार आप भी  मेरी तरह सोचकर देखिये ।    

कोयल चुप है

गाँव की अमराई में कूकती है कोयल
चुप हो जाती है अचानक कूकते हुए

कोयल की चुप्पी में आती है सुनाई
बंजर खेतों की मिट्टी की सूखी सरसराहट  
किसी किसान की आखरी चीख
खलिहानों के खालीपन का सन्नाटा  
चरागाहों के पीलेपन का बेबस उजाड़

बहुत देर की नहीं है यह चुप्पी फिरभी
इसमें किसी मज़दूर के अपमान का सूनापन है
एक आवाज़ है यातना की
घुटन है इतिहास की गुफाओं से आती हुई  

पेड़ के नीचे बैठा है एक बच्चा
कोरी स्लेट पर लिखते हुए
आम का “ आ “
वह जानता है
अभी कुछ देर में
उसका लिखा मिटा दिया जायेगा

उसके हाथों से
जो भाग्य के लिखे को
अमिट समझता है ।

                        -  शरद कोकास                                                                                       
(चित्र गूगल से साभार )