बुधवार, दिसंबर 02, 2009

भोपाल गैस कांड की याद में एक बेमौसम कविता -शरद कोकास

भोपाल गैस कांड में जो प्रभावित लोग ज़िन्दा बच गये थे वे भी आज खुश कहाँ हैं ? पिछले 25 बरसों में जाने कितने लोग धीरे धीरे मर चुके हैं गैस के प्रभाव की वज़ह से । वे जिनके फेफड़े और अन्य अंग प्रभावित हो गये थे वे ,जिनकी बीमारी की मूल वज़ह वह गैस थी और यह बात उन्हे भी नही पता थी । सोचिये उन गर्भवती स्त्रियों ,बच्चों और बूढों के बारे में ज़हरीली गैस जिनकी कोशिकाओं में समा गई थी । यह वैज्ञानिक तथ्य आपको पता है ना ..हम साँस कहीं से भी लें श्वसन क्रिया कोशिकाओं में होती है ।
खैर जिस तरह हिरोशिमा और नागासाकी के विकीरण के प्रभाव को लोग भूल गये उसी तरह आज लोग इस बात को भूल चुके हैं कि यूनियन कार्बाइड नाम की कोई हत्यारी फैक्टरी भी थी । कुछ दिनो तक लोगों ने लाल एवरेडी का बहिष्कार किया फिर भूल गये । पीड़ितों को मुआवज़ा अवश्य मिला लेकिन लोग यह भूल गये कि मुआवज़े के पैसे से दवा खरीदी जा सकती है ज़िन्दगी नहीं ।
यह हमारे देश की संस्कृति है कि हत्यारे के नकली आँसू देखकर उसे गले लगा लिया जाता है । हत्यारा फिर फिर हँसता है और गले मिलकर फिर पीठ में छुरा घोंप देता है । 25 बरस पहले मुझे समझ नहीं थी लेकिन गैसकांड पीड़ितों और समाज के हित में काम करने वाली संस्थाओं के आन्दोलन देख कर लगता था कि अब शायद दोबारा देश में ऐसा न हो ,लेकिन वह एक झूठा स्वप्न था ,मानवता की हत्या करने वाली बहुत सारी मल्टीनेशनल कम्पनियाँ फिर आ गईं है....बल्कि इस बार उन्हे नेवता देकर बुलाया गया है । हत्या का तरीका भी अब बदल गया है । इसलिये अब दोबारा देश में ऐसा हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये ।
मैने कविता लिखना सीखा ही था उन दिनों और लिखना-पढना शुरू ही किया था । उस उम्र का एक स्वाभाविक असर था कि आक्रोश मन में जन्म ले रहा था ...कैसे लोग हैं जो इस ज़हरीली गैस कांड के बाद भी देश में बसंतोत्सव मनाने जा रहे हैं ..इस गुस्से को शांत करने के लिये एक कविता लिखी गई थी जो उस समय अखबार में छपी भी थी .. आज गैस कांड की इस पच्चीसवीं बरसी पर इसे प्रस्तुत कर रहा हूँ .. इस निवेदन के साथ कि इसके बिम्बों को उस घटना के सन्दर्भ में समझने की कोशिश कीजियेगा और सोचियेगा कि क्या आज हम फिर इन कड़वी सच्चाइयों को भूल कर उत्सवधर्मिता में मग्न नहीं हो गये हैं ?


                                   बसंत क्या तुम उस ओर भी जाओगे ?


बसंत क्या तुम उस ओर जाओगे
जहाँ पेड़ देखते देखते
क्षण दो क्षण में बूढ़े हो गये
देश की हवाओं में घुले
आयातित ज़हर से
बीज कुचले गये
अंकुरित होने से पहले और जहाँ
वनस्पतियाँ अविश्वसनीय हो गईं
जानवरों के लिये भी


जाओ उस ओर तुम देखोगे
और सोचोगे पत्तों के झड़ने का
अब कोई मौसम नहीं होता
ऊगते हुए
नन्हे नन्हे पौधों की कमज़ोर रगों में
इतनी शक्ति शेष नहीं
कि वे सह सकें झोंका
तुम्हारी मन्द बयार का
पौधों की आनेवाली नस्लें
शायद अब न कर सकें
तुम्हारी अगवानी
पहले की तरह खिलखिलाते हुए


आश्चर्य मत करना देखकर
वहाँ निर्लज्ज से खड़े बरगदों को ।

-शरद कोकास 

(चित्र गूगल से साभार )