रविवार, मार्च 07, 2010

अमीबा की तरह वह अपने घर से अलग हुई


                      
अपने घर से बाहर निकलकर किसी अनजान शहर में नौकरी करने के लिये जाना एक अकेली लड़की के लिये कितना कठिन काम है इस बात का अन्दाज़ लगाना उन लोगों के लिये कठिन है जिन्होने इनके जीवन को करीब से नहीं देखा है । लेकिन यह समय का सत्य है कि लड़कियाँ पढ –लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं और नौकरी के लिये बाहर भी जा रही हैं । हम जिस समाज को आधुनिक समाज कहते हैं वहाँ इस बात में कोई आश्चर्य भी नहीं होना चाहिये कि लड़कियाँ घर से बाहर रहकर कैसे काम कर रही हैं ,लेकिन यह भी इतना ही सच है कि परिवेश के आधुनिक हो जाने से विचार यकायक आधुनिक नहीं हो जाते । अवचेतन में बसी स्त्री की छवि से यह तुलना निरंतर जारी रहती है । ऐसी ही सामाजिक मान्यताओं के बीच परिस्थितिजन्य द्वन्द्व को जीते हुए एक कामकाजी लड़की की मनस्थिति का चित्रण है इस कविता में । अंतरराष्ट्रीय  महिला दिवस पर इस आधी दुनिया के लिये पूरे सम्मान के साथ ....

                   कामकाजी लड़की


अमीबा की तरह अपने घर से अलग हुई वह
आज़ाद हवा से दोस्ती की उसने
मज़बूती से ज़मीन का दामन थामा
और एक कदम आसमान की ओर बढा दिया

एक घर से बाहर निकलना उसका
जाने कितनी ज़िन्दगियों से बाहर निकल जाना था
आसमान में बैठे भगवानों को आश्वस्त करना था उसे 
सिर्फ दिमाग़ की नहीं पेट की भूख भी मिटाना था 
 
कुछ डिग्रियाँ थी उसके पास कुछ योग्यतायें
तमाम उपलब्धियों से भरी थी उसकी फाइल
पर्स के अलग अलग खानों में
विवाह और मातृत्व के सुखद स्वप्न थे
उसके टिफिन में योग्य कन्या होने के सारे सबूत
कलम में हौसले के साथ लड़ने की ताकत थी

सुख – सुविधा और सफलता की बारिश
उसे डुबो देना  चाहती थी अपने प्रलयंकारी रूप में
मगर वह एक नाव थी और उसे
ज्ञात थी बचे रहने की सारी हिकमतें
उसे आनेवाली दुनिया के बीज सहेज कर रखना था
सो घर से बाहर पाँव रखते हुए
उसने अपने साथे रखे ज़रूरत के कुछ सामान
और चालाकी मक्कारी खुदगर्ज़ी के उफान में
अपने लिये ढूँढ निकाला एक सुरक्षित ठिकाना

किताबों से बातें करती थी वह
रोती चिठ्ठियों के कन्धों पर सर रखकर
गाती केसेट पर बजती धुनों के संग और नाचती
फोन पर सुनती ज़माने की नसीहतें
कॉफी का एक प्याला उसका डॉक्टर था
और खिड़की से आया हवा का ताज़ा झोंका नर्स

पन्द्रह बाइ दस का कमरा ही उसका द्वीप था
अच्छे दिनों के स्वागत मे जिसे सजाती थी वह
उसकी स्मृतियों में था वह झिलमिलाता आंगन
जहाँ चलना सीखने की उम्र में
गिरने से पहले एक हाथ थाम लेता था
शहर के इस व्यस्त इलाके में
कोई आंगन नहीं था उसके कमरे के सामने
और चलते हुए ठोकर खाने की गुंजाइश
पहले से कहीं ज़्यादा थी  

पाँवों पर खड़ी होने का मुहावरा सार्थक करती हुई 
उसकी नौकरी समस्त स्त्री जाति की मुक्ति का ऐलान है
उसकी कमाई दुनिया के श्रमजीवी होने का प्रमाण
पुरुष के कन्धे से कन्धा मिलाकर काम करती
कामकाजी लड़की के जेहन में कई अनुत्तरित प्रश्न हैं
परम्परागत मौन है जिनके उत्तर में
कब तक निगला जा सकता है बेस्वाद यथार्थ
अचार के टुकड़ों और पराठों के साथ
वक़्त और पैसे बचाने के फेर में
कब तक लिफ्ट ली जा सकती है
गंजे अधेड़ सहकर्मी के स्कूटर पर
कब तक रुका जा सकता है काम की विवशता में
दफ्तर की अधिकांश ट्यूबलाइटें बन्द होने के बाद

साहस सुविधा सुरक्षा समता जैसे शब्दों की बाज़ीगरी करती दुनिया
उसके दिमाग को आदम के दिमाग़ में तब्दील होते देखना चाहती है
और जिस्म को हव्वा के जिस्म में ।

                   - शरद कोकास

 (चित्र गूगल से साभार )