नवरात्रि पर्व पर विशेष कविता श्रंखला -समकालीन कवयित्रियों द्वारा रचित कवितायें-चौथा दिन
नीलेश रघुवंशी की कविता “हंडा” के विषय में अशोक कुमार पाण्डेय कहते हैं “औरत के पूरे सामाजिक आर्थिक परिवेश में स्थान तलाशने की जद्दोज़ेहद कविता के पूरे सौष्ठव में उपस्थित है।वहीं अजय कुमार झा का कहना है “कवयित्री ने हंडे में नारी जीवन का सारा सारांश समेट कर रख दिया है । “शोभना चौरे और निर्मला कपिला इसे ग्रामीण महिला का जीवन दर्शन मानती है ।लोकेन्द्र इस हंडे में पूरा नारित्व देखते हैं । हेम पाण्डेय का कहना है “यह स्थिति के बदलाव हेतु सार्थक शुरुआत है । चन्द्र कुमार जैन का कहना है “यह प्रस्तुति कविता में बची हुई गंध जैसी प्रतीत हो रही है । “ मुकेश कुमार तिवारी ने कहा “कविता हंडे में रचे बसे हुये संसार में स्त्री देहमुक्त हो अपने वुजूद को तलाशती विवश है।“ ललित शर्मा ने वर्तमान परिप्रेक्ष्य मे छत्तीसगढ़ी में हंडे की की नियति बताते हुए कहा है कि ” शरद भाई,अब जमाना बदल गे भाई पहिली जैसे नई ये कड़हा,रहे के कनवा रहय सबे बेचा जाये। “ अमलेन्दु अस्थाना,योगेश स्वप्न और राज भाटिया जी को जहाँ यह कविता पसन्द आई है वहीं रवि रतलामी जी ने पहली बार मेरे इस ब्लॉग पर कदम रखकर मेरे ब्लॉग बुखार को नियंत्रित करने के लिये मुझे आवश्यक तकनीकी सलाह दी है । मै उनके प्रति आभारी हूँ ।
आज नवरात्र के चौथे दिन प्रस्तुत है कवयित्री शुभा की यह कविता जो मैने अनामिका द्वारा सम्पादित संकलन “ कहती हैं औरतें “ से ली है । साभार – शरद कोकास
मै हूँ एक स्त्री
कौन कह सकता है मैं शर-विध्या सीखना चाहती हूँ
मैं उस धूर्त और दयनीय ब्राह्मण दोणाचार्य की मूर्ति भी नहीं बना सकती
क्योंकि वह पर पुरुष है
मैं एकलव्य नहीं बन सकती
मेरा अंगूठा है मेरे पति का
मैं शम्बूक भी नहीं बन सकती
क्योंकि मुझे एक बलात्कारी से गर्भ धारण करना है
एकलव्य और शम्बूक मैं तुम्हारे एकांत से
ईर्ष्या करती हूँ
क्योंकि मैं एक स्त्री हूँ और ब्राह्मणों की दुनिया
भंग करना चाहती हूँ
शुभा