शनिवार, मार्च 20, 2010

पाकिस्तान में भी अच्छी कविता होती है ..


                                 नवरात्रि पंचम दिवस । 20.03.2010
अब तक आपने पढ़ा - फातिमा नावूत ,विस्वावा शिम्बोर्स्का और अन्ना अख़्मातोवा की कविता पढ़ने के बाद कल नवरात्रि के चौथे दिन आपने लातीन अमेरिका की कवयित्री गाब्रीएला मिस्त्राल की कविता “अपना हाथ मुझे दो “ पढ़ी ।
कविता के असली कदरदान - इस कविता पर समीर लाल,सुमन ,गिरिजेश राव ,कुलवंत हैप्पी , संजय भास्कर ,वन्दना ,खुशदीप सहगल , रश्मि रविजा ,सुशीला पुरी ,वन्दना अवस्थी दुबे , शिखा वार्ष्णेय ,रचना दीक्षित चन्दन कुमार झा , हिमांशु और बेचैन आत्मा की प्रतिक्रिया प्राप्त हुई । भाई अशोक कुमार पाण्डेय सम्मेलन में अपनी व्यस्तता के चलते विशेष टिप्पणी नहीं कर पाये । खैर आज की इस कविता के साथ दोनो कविताओं पर उनकी टिप्पणी प्राप्त होगी ऐसी उम्मीद है ।
आज की कविता के बारे में  - आज की कविता का शीर्षक है “ मेज़ पर रखे हाथ “ । इसे लिखा है पाकिस्तान की कवयित्री अज़रा अब्बास ने और इसका उर्दू से अनुवाद किया है सलीम अंसारी ने । “अपना हाथ मुझे दो “ और “ मेज़ पर रखी हाथ “ में जो मूलभूत अंतर है उसकी तलाश आप यहाँ कर सकते हैं । निवेदन यही है कि ज़रा ठहर ठहरकर इन कविताओं को पढ़ें । यह कविता और कवि परिचय मैने ज्ञानरंजन जी की पत्रिका “ पहल “ से लिया है और ज्ञान जी ने इसका चयन पाकिस्तान के शायर व आलोचक अहमद हमेश की पत्रिका “तशक़ील” से किया है ।
 अज़रा अब्बास कौन हैं – अज़रा अब्बास पाकिस्तान में नई पीढी की कलम कार हैं । अपनी आत्मकथा “ मेरा बचपन “ में उन्होने स्त्री होने के समसामयिक दुखों को झेलते हुए रूढ़ीवादी पाकिस्तानी समाज से कड़ा संघर्ष किया है । 1970 में उनका साहित्यिक सफर प्रारम्भ हुआ और उसी के साथ उनका विद्रोही हिस्सा प्रकट हुआ । अज़रा अब्बास की शैली में एक खुरदुरापन , गति और आक्रामकता है ।
आप सभी के प्रति आभार व्यक्त करते हुए ब्लॉग जगत के पाठकों के लिये प्रस्तुत है ,पाकिस्तान की कवयित्री अज़रा अब्बास की सरल सी लगने वाली  यह कविता जो  “हाथों “ पर लिखी होने के बावज़ूद सिर्फ हाथों पर लिखी कविता नहीं है, इसे ज़रा उनके परिचय के पेशे नज़र देखें ।

मेज़ पर रखे हाथ

मेज़ पर रखे हैं हाथ
हाथों को  मेज़ पर से उठाती हूँ
फिर भी पड़े रहते हैं
मेज़ पर ,
और हँसते हैं
मेज़ पर रखे
अपने ही दो हाथों को
हाथों से उठाना मुश्किल होता है

मैं हाथों को
दाँतों से उठाती हूँ
पर हाथ नहीं उठते
मेज़ पर रह जाते हैं
दाँतों के निशानों से भरे हुए
साफित (स्थिर)  और घूरते हुए
मैं भी हाथों को घूरती हूँ
मेज़ का रंग आँखों में भर जाता है
मैं आँखें बन्द कर लेती हूँ

सो जाती हूँ
मेज़ पर रखे हुए हाथों पर
सर रखकर ।
         
          - अज़रा अब्बास

यह कविता आपको कैसी लगी ? अगले दिनो में प्रस्तुत करूंगा ईरान डेनमार्क मूल की शीबा काल्बासी ,अरबी कवयित्री दून्या मिख़ाइल की कवितायें और कुछ और कवितायें जो सिद्धेश्वर जी अशोक पाण्डेय जी और अ.कुमार पाण्डेय जी उपलब्ध करवायेंगे । बस यही निवेदन है कि अधिक से अधिक लोग यह कवितायें पढ़ें और इस साहित्यिक  चर्चा में भाग लें । यह भी बतायें कि प्रतिदिन एक कविता कहीं मेरी ज़ल्दबाज़ी तो नहीं लग रही ?             
 - आपका - शरद कोकास