मुक्तिबोध सम्मान से सम्मानित ज्ञानरंजन |
पहल 104 में प्रकाशित
शरद कोकास
की
लंबी कविता
' देह '
से एक अंश
अजूबों का संसार है इस
देहकोष के भीतर
अपनी आदिमाता पृथ्वी की तरह गर्भ में लिए कई
रहस्य
आँख जिसे देखती है और बयान करती है जिव्हा
आँसुओं के अथाह समंदर लहराते हैं जिसमें
इसकी किलकारियों में झरने का शोर सुनाई देता है
माँसपेशियों मे उभरती हैं चटटानें और पिघलती हैं
हवाओं से दुलराते हैं हाथ त्वचा महसूस करती है
पाँवों से परिक्रमा करती यह अपनी दुनिया की
और
वे इसमें होते हुए भी इसका बोझ उठाते हैं
अंकुरों से उगते रोम केश घने जंगलों में बदलते
बीहड़ में होते रास्ते अनजान दुनिया में ले जाने
वाले
नदियों सी उमडती यह अपनी तरुणाई में
पहाडों की तरह उग आते उरोज
स्वेदग्रंथियों से उपजती महक में होता समुद्र का
खारापन
होंठों पर व्याप्त होती वर्षावनों की नमी
संवेदना एक नाव लेकर उतरती रक्त की नदियों में
और शिराओं के जाल में उलझती भी नहीं
असंख्य ज्वालामुखी धधकते इसके दिमाग़ में
हदय में निरंतर स्पंदन और पेट में आग लिए
प्रकृति के शाप और वरदान के द्वंद्व में
यह ऋतुओं के आलिंगन से मस्त होती जहाँ
वहीं प्रकोपों के तोड़ देने वाले आघात भी सहती है
सिर्फ देह नहीं मनुष्य की यह वसुंधरा है
और इसका बाहरी सौंदर्य दरअसल
इसके भीतर की वजह से है।
शरद कोकास
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