कात्यायनी की कविता पर द्विवेदी जी ने कहा “यहाँ स्त्री अभिव्यक्त नहीं हो रही है। अपितु वह पुरुष अभिव्यक्त हो रहा है जो अपने लिए एक खास औरत चाहता है। उसे स्त्री के जीवन से कोई मतलब नहीं है। वह अपने लिए स्त्री को उपकरण समझता है । शोभना चौरे जी ने कहा यह पुरुष के दोगलेपन को प्रकट करती है ।गिरीश पंकज जी कात्यायनी को जुझारू और सामाजिक परिवर्तन के लिये प्रतिबद्ध मानते हैं लेकिन इसके विपरीत अशोक कुमार पाण्डेय जी को अनामिका की कविता और इस कविता में मूल अंतर नज़र आया कि जहां अनामिका ने कविता रची है कात्यायनी ने गढी है। यह स्वाभाविक गुस्से या समर्थन की उपज नही लगती। राज भाटिया जी तो बेहद नाराज़ हैं वे कहते हैं पुरुषों की ओर से मैं अभी अभी शर्मिन्दा होकर लौटा हूँ, कदापि नही, मैं तो ऎसा हरगिज नही सोचता, कविता पसंद आई, लेकिन सभी नारियां इतनी भी बेचारी नही कि पुरुषों को शर्मिंदा होना पडे, मैने तो ऎसी नारियाँ भी देखी है कि मर्द को बेच खाये लेकिन उनका मानना है सिर्फ़ नारी होने से कोई महान या कमजोर या दया का पात्र नही होता , नारी महान वो ही है जो महान काम करती है, वही पुजी जाती है, ओर मर्द भी बही महान है जो अच्छा काम करे । अपूर्व ने कहा “कात्यायनी की कविताएं वैसे भी मुझे ढ़ोंगी और हिपोक्रिट समाज के गाल पर तमाचा जैसी लगती हैं..वह समाज जिसका हिस्सा मैं भी हूँ..।“ डॉ. दराल का मानना है कविता में आक्रोश झलकता है, लेकिन आज की नारी इतनी दुर्बल नहीं है.। पारुल तो पढ़ने के बाद मन में उपजी खीज को चुपचाप पी लेना चाह्ती हैं उसे टिप्पणी कर के कम नही करना चाह्ती । बबली ने शिक्षा पर ज़ोर देते हुए कहा कि आजकल की औरते मर्दों से एक कदम आगे है! चाहे कोई भी काम हो औरते पीछे नहीं हटती और पूरे लगन के साथ उस काम को अंजाम देती हैं! एम.ए.शर्मा सेहर ने कहा ये कविता औरत को झकझोरतीहुयी कहती है - उठो पहचानो अपने आप को.... अपनी शक्ति को !
तो आज तीसरे दिन प्रस्तुत है युवा कवयित्री नीलेश रघुवंशी की यह चर्चित कविता “ हंडा " हंडा
एक पुराना और सुन्दर हंडा
भरा रहता जिसमे अनाज
कभी भरा जाता पानी
भरे थे इससे पहले सपने
वह हंडा
एक युवती लाई अपने साथ दहेज में
देखती रही होगी रास्ते भर
उसमें घर का दरवाज़ा
बचपन उसमें अटाटूट भरा था
भरे थे तारों से डूबे हुए दिन
नहीं रही युवती
नहीं रहे तारों से भरे दिन
बच नही सके उमंग से भरे सपने
हंडा है आज भी
जीवित है उसमें
ससुराल और मायके का जीवन
बची है उसमें अभी
जीने की गन्ध
बची है स्त्री की पुकार
दर्ज है उसमें
किस तरह सहेजती रही वह घर
टूटे न कोई
बिखरे न कोई
बचे रह सकें मासूम सपने
इसी उधेड़बुन में
सारे घर में लुढ़कता फिरता है हंडा
-नीलेश रघुवंशी