यह बहुत पहले की बात है , दुर्ग के पास शिवनाथ नदी में बाढ़ आई हुई थी , कई गाँव डूब गये थे । कई लोग पर्यटकों की तरह बाढ़ देखने पहुँचे थे । वहीं एक फोटोग्राफर भी था जो अलग अलग एंगल से बाढ़ के दृश्यों को कैमरे में उतार रहा था , उसी की एक बात ने इस कविता के लिये यह विचार दिया । यह कविता जनवाद और कलावाद के अंतर को भी स्पष्ट करती है । समीक्षक तो बेचारा व्यर्थ ही इस कविता में आ गया ।
(56) बाढ़
बारिश
अच्छी लगती है
बस फुहारों तक
बादल बून्द और हवायें
कपड़ों का कलफ़ बिगाड़ने का
दुस्साहस न करें
मौसम का कोई टुकड़ा
कीचड़ सने पाँव लेकर
कालीन रौन्दने लगे
तो छत के ऊपर
आसमान में
बादलों के लिये आप
प्रवेश –निषेध का बोर्ड लगा देंगे
आकाश तक छाई
हृदय की घनीभूत पीड़ा को लेकर
कविता लिखने वाले
ख़ाक लिखेंगे कविता
टपकते झोपड़े में
घुटनों तक पानी में बैठकर
आनेवाली बाढ़ में
अलग-थलग रह जायेंगे
सारे के सारे बिम्ब
बच्चे, पेड़ , चिड़िया
सभी अपनी जान बचाने की फिक्र में
कैसे याद आ सकेगी
माटी की सोन्धी गन्ध
लाशों की सड़ान्ध में
फोटोग्राफर
कैमरे की आँख से देखकर
समीक्षक की भाषा में कहता है
पानी एक इंच और बढ़ जाता
तो क्या खूबसूरत दृश्य होता ।
शरद
कोकास