रविवार, अक्तूबर 10, 2010

नवरात्र कविता उत्सव - तीसरा दिन - असमिया कवयित्री निर्मल प्रभा बोरदोलोई

* कल प्रकाशित वरिगोंड सत्य सुरेखा की तेलुगु कविता पर बहुत सारी प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं ।प्रवीण त्रिवेदी ने कहा सच है इन प्रश्नों के जवाब नहीं ही मिलने वाले  मनोज कुमार ने कहा हँसी हँसी में गहरी बात कह दी गई है ।रावेन्द्र कुमार रवि ने कहा कि यह महसूस करने की बात है कि प्रश्नकर्ता और उत्तर न देने वाले की हँसी में क्या अंतर है ।इस्मत ज़ैदी ने कविता में प्रश्नों के उत्तर ढूँढने के इस प्रयास को सराहनीय बताया निशांत ने कहा चलानो वालो से बड़े उनसे भी बड़े चलाने वाले । एस एम मासूम, पारुल ,अजय कुमार ,देवेन्द्र पाण्डेय ,राज भाटिया ,ज्योति सिंह ,पूनम श्रीवास्तव,दीपक बाबा को यह कविता पसंद आई । संगीता स्वरूप ने कहा कि कवयित्री ने मन की वेदना कह दी है । वन्दना ने इसे सार्थक अभिव्यक्ति कहा और शाहिद मिर्ज़ा ने कहा कि सवाल जवाब का यह सिलसिला कभी नही थमेगा । शोभना चौरे ने कहा इस पीड़ा को अंतर्मन से समझने की कोशिश रही हूँ ।रश्मि रविजा ने कहा कि जवाब किसीके पास नहीं है इसलिये लोग सवालों पर हँस पड़ते हैं । सुशीला पुरी ने कहा कि विवशता में भी हँसकर खुद को बहलाया जा सकता है ।वाणी गीत ने कहा कि सवाल का जवाब भी अगर सवाल है तो हँसने के सिवा क्या किया जा सकता है ।महेन्द्र वर्मा ने चांद और डर के अनूठे बिम्ब का ज़िक्र किया । समीर लाल ने कहा कि पीड़ा का चरम भी अक्सर हँसी में तब्दील होते देखा है । राहुल सिंह ने कहा जग ह कहत भगत बहिया ,भगत ह कहत जगत बहिया .। एक ब्लॉगर की टिप्पणी बहुत दिनों बाद मिली ..कोपल कोकास ने कहा हँसने वालों को देखकर हँसी रोकना मुश्किल है तो हँसना ही बेहतर है । उत्तम राव क्षीरसागर ने इसे अपने उद्देशय में सफल कविता बताया । गत वर्ष 19 सितम्बर2009 से 27 सितम्बर 2009 तक के शारदीय नवरात्र कविता उत्सव में शामिल श्री पी सी गोदियाल , दिनेश राय द्विवेदी , निर्मला कपिला अशोक कुमार पाण्डेय,मिथिलेश दुबे, मीनू खरे, विनोद कुमार पाण्डेय , समयचक्र, हेमंत कुमार ,टी एस दराल,भूतनाथ, सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, विनीता यशस्वी , मिता दास ,लावण्या शाह ,पंकज नारायण और कुलवंत हैप्पी को भी मैं याद कर रहा हूँ ।    
अब एक अनुवादक की बात - इस कविता और कविता उत्सव के इस प्रयास पर इस आयोजन में मेरे सहयोगी कवि अनुवादक और ब्लॉगर सिद्धेश्वर सिंह ने कहा अलग भाषाओं  - से साक्षात्कार एक दूसरी दुनिया खोलने वाला होता है । आप नवरात्रि के बहाने यह काम बहुत बढ़िया तरीके से कर रहे हैं। बधाई मेरे भाई । आपका यह काम मुझे तीन और वजहों से महत्वपूर्ण लगता है :
०१- कविता के स्त्री स्वर का आदर , मान और प्रस्तुतीकरण; अपनी इस विपुला पृथ्वी की आधी आबादी की रचनाशीलता का प्रतिदर्श ।
०२- अनुवाद कर्म का मान; नहीं तो हालत यह है कि आज की हिन्दी के साहित्यिक संसार में अनुवादक को तो बस दूसरे प्राणी मानकर चलने का चलन-सा हो गया लगता है।

०३- हिन्दी ब्लॉग की बनती हुई दुनिया में कविता के पाठक की रुचि का परिष्कार; मुझे हमेशा लगता है कि (हिन्दी)ब्लॉग की लेखकीय / पाठकीय दुनिया वह नहीं है जो छपे हुए शब्दों के संसार में है। यह एक 'दूसरी दुनिया' है। मुझे अक्सर यहाँ यह भी लगता है कि तात्कालिकता , त्वरितता और पारस्परिक प्रशंसा -प्रसंग के दबाव ( सुविधा भी! ) के कारण एक हड़बड़ी - सी है और जहाँ तक मेरी समझ है कि अच्छी कविता ठहराव की माँग करती है - रुककर / मुड़कर बार - बार देखे - निरखे -परखे जाने की। आप अपनी इस महत्वपूर्ण योजना से एक बड़ा काम कर रहे हैं। यह क्रम जारी रहे ताकि व्यक्तिगत रूप से अपन पढ़ने के संस्कार का परिष्कार करते रहें। और हाँ, इस महत्वपूर्ण योजना में आपने मुझको एक सहयोगी मित्र की तरह साथ चलने का जो सुअवसर प्रदान किया है उसके लिए शुक्रिया दिल से ।
आइये आज पढ़ते हैं असमिया कवयित्री निर्मल प्रभा बोरदोलोई की दो कवितायें जिनका अनुवाद सिद्धेश्वर सिंह ने किया है  
०१- दु:ख

शरद ऋतु में
खेतों से उठने वाली गंध
जैसे तैसे चलकर
जब पहुँचती है नथुनों तक
तो पा लेती हूँ मैं अपने पिता को।

जब भी अनुभव करती हूँ
किसी दुकान से लाए गए
टटके तह खुले 'गामोशा' की गमक
तो जैसे  वापस मिल जाती है माँ।

कहाँ रख जाऊँगी मैं
स्वयं को
ओह कहाँ ?
अपने बच्चों के लिए ?

०२- इच्छा

अपने अंतस में बचाए रक्खो
जंगल का एक अंश
ताकि मिल सके
जुड़ाने भर को तुम्हें थोड़ी - सी छाँह।

अपने अंतस में बचाए रक्खो
मुट्ठी भर आकाश
ताकि पाखियों के एक जोड़े को
मिल सके उड़ान भरने के लिए एकांत ।

कवयित्री का परिचय : असम साहित्य सभा की अध्यक्ष रह चुकीं निर्मल प्रभा बोरदोलोई (1933 - 2003) ने नौ बरस की कच्ची उम्र से कवितायें लिखना आरंभ कर दिया था और आजीवन लिखती रहीं। उनके खाते में पचास से अधिक किताबें है जिनमें नौ कविता संग्रह हैं। 1983 का  प्रतिष्ठित साहित्य अकादेमी पुरस्कार भी पाँचवें कविता संग्रह  'सुदीर्घ दिन आरु रितु' के लिए ही मिला। विदेश की कई साहित्यिक यात्राओं में उन्होंने भारत का  प्रतिनिधित्व किया है। उनके गीतों को असमिया के कई नामचीन गायकों ने वाणी दी है। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा है कि वह कविता केवल लिखने के लिए नहीं लिखतीं वरन अपनी जड़ों की तलाश और दिक्काल की सीमाओं से परे उदात्त मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा को बनाये - बचाये रखना उनका 'कविता धर्म' है और यह भी कि जीवन से बड़ी कोई कविता नहीं होती क्योंकि जीवन अपने आप में एक असमाप्त कविता है।
कविता के साथ साथ हम सिद्धेश्वर सिंह के कथन पर भी चर्चा क्यों न करें ?