गुरुवार, जनवरी 20, 2011

इस कविता में ऐसा क्या है ?

 पिछली कविता में अनेक पाठकों ने कविता के नये नये अर्थ तलाशने का प्रयास किया । अच्छा लगा । देवेन्द्र जी बहुत करीब तक पहुंचे । प्रस्तुत है एक और कविता । यह 1992 की कविता है । यह न भुलाया जा सकने वाला वर्ष है । मुझे उम्मीद है इस कविता मे भी आपको कुछ नये अर्थ दिखाई देंगे । 

कोंपल के कानों में


याद नहीं कब झिंझोड़ गया
समझौतों का तूफान
मस्तिष्क में जड़ें जमा चुके
विचारों के दरख़्त को

शक्ति के पत्ते टूटे
संकल्प की डालियाँ
नैतिकता के पीले पत्तों को
उड़ा ले गई
अभिजात्यवर्गीय हवा

आकांक्षाओं का रूमानी सावन
बिन बरसे बीत गया
उजाड़ गया संस्कारों के नीड़

लेकिन भरोसा इतना तो है
वर्जना की हथेलियों से
सर ढाँककर
भीगने का सुख भोगने वाली पीढ़ी
झंझावात के थमने पर
कोंपल के कानों में मंत्र फूँकेगी
दरख़्तों को सघन करने का ।



                        शरद कोकास