१९८६ में हमने भी बसंत पर कुछ पंक्तियाँ लिखी थी जो हमें एक गज़ल की तरह लगी थी .. उम्मीद है आपको भी गज़ल की तरह ही लगेंगी . न लगे तो माफ़ कर दीजिएगा . आखिर ग़ज़ल मेरी विधा नहीं है .
फिर इस बसंत में
फिर इस बसंत में होंगी बातें फूलों की
अदब के रंग खुशबू बहार और झूलों की
पीठ से जा लगे हैं जाने कितने ही पेट
बसंत को याद नहीं है बुझते चूल्हों की
अब दरख्तों
का घना साया महलों पर है
अपने हिस्से में मिली छाँव बस बबूलों की
उनकी दरियादिली का आजकल यह आलम है
पहाड़ों पर बसी है बस्ती लंगड़ों – लूलों की
अब नही आता है यौवन नन्ही कलियों पर
नज़रे उन पर जो चुभी हैं दरिन्दे शूलों की
वो ज़खीरा लिये बैठे है हथियारों का
सज़ा मिलेगी हवाओं को उनकी भूलों की
अब इस मुल्क की पैमाइश का पैमाना क्या
नक्शों में हो रही है जंग तो भूगोलों की
जले बदन की बू छुपी है इन बयारों में
आज बाज़ार में कीमत बढ़ेगी दूल्हों की
किससे शिकायत करें और किस मुँह से
फिर इस अकाल में सूखी फसल उसूलों की
-
शरद कोकास