स्कूल- कॉलेज की परीक्षायें प्रारम्भ हो चुकी हैं । हर घर में अनुशासन पर्व चल रहा है । सब कुछ नियमित समय पर हो रहा है ,बच्चों की पढ़ाई-लिखाई ,खाना-पीना ,सोना-जागना । टी.वी. देखने ,घूमने –फिरने ,गपशप और सोने का का समय घट गया है , पढ़ने का समय बढ़ गया है । बच्चे भी मोबाइल पर आजकल सिर्फ पढ़ने लिखने की ही बातें कर रहे हैं । माता –पिता यथासम्भव उनका खयाल रख रहे हैं । वे देख रहे है बच्चों ने समय पर पौष्टिक भोजन लिया या नहीं , उनकी नीन्द पूरी हुई या नहीं आदि आदि । अपनी हिदायतों के साथ वे उनकी पढ़ाई के लिये उचित वातावरण की व्यवस्था कर रहे हैं और उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना कर रहे हैं ।
लेकिन युवाओं की एक अलग दुनिया है । वे खुद नहीं जानते कल उनके लिये क्या लेकर आने वाला हैं । वे क्या बनेंगे , कहाँ सेटल होंगे उन्हे कुछ नहीं पता । अभी मंज़िल बहुत दूर है और उस तक पहुँचने के लिये उन्हे बहुत संघर्ष करना है । वे करें भी तो क्या , बचपन से उनके मन में यह बात डाल दी जाती है कि उन्हे एक दिन बड़ा आदमी बनना है । वे अपने माता- पिता की आँखों में विश्वास और उम्मीदें एक साथ देखते हैं और उसे पूरा करने के लिये जी- जान लगा देते हैं । हालाँकि वे जानते हैं जैसे जैसे उम्र बढ़ती जायेगी ,समस्यायें भी बढ़ती जायेंगी । हर दौर की अपनी कुछ मुश्किलें होती हैं । फिर भी , सपने तो सपने हैं कुछ उनकी आँखों में हैं , कुछ उनके माता-पिता की ।
ऐसे ही अपने कॉलेज के दिनों में जब मेरे इम्तहान चल रहे थे एक सुबह माँ मेरे लिये चाय बनाकर लाई , तो इस कविता ने मन में जन्म लिया था । बरसों बाद आज अपने घर में भी वही दृश्य देखा । बिटिया परीक्षा देने गई है और मैं इस कविता के माध्यम से आप लोगों के साथ बाँट रहा हूँ अपनी भावनायें ....
धूप ढलने से पहले
ज़िन्दगी के अन्धे कुयें से
हाथों के छाले बन जाते हैं
आनेवाले दिन
सुबह सुबह
दरवाज़ा खटखटाती है धूप
नींद की किताब का पन्ना मोड़कर
मिचमिचाती आँखों से
अतीत को साफ करता हूँ
बिछाता हूँ धूप के लिये
समस्याओं की चटाई
याद दिलाती है धूप
भविष्य की ओर जाने वाली बस
बस छूटने ही वाली है
उम्र की रस्सियों से बन्धी
परम्पराओं की गठरी लादते हुए
मुझे उष्मा से भर देता है
धूप की आँखो में उमड़ता वात्सल्य
धूप को भी उम्मीद है
उसके ढलने से पूर्व
मैं बड़ा आदमी बन जाउंगा ।
शरद कोकास
(चित्र गूगल से साभार )