सोमवार, अगस्त 06, 2012

1989 की कवितायें - गिद्ध जानते हैं

इससे पहले सूरज के बिम्ब को लेकर एक कविता आपने पढ़ी थी " सूरज को फाँसी "  जिसमें मैंने सूरज का बिम्ब कवि बेंजामिन मोलाइस के लिये इस्तेमाल किया था । ठीक इसके विलोम में इस कविता में यह सूरज हमारा शोषक है जिसकी ओर हम आशा भरी निगाहों से देखते हैं और गिद्ध उसके और हमारे बीच के बिचौलिये .. । उम्मीद है यह कविता ठीक ठीक आप तक सम्प्रेषित होगी ।


53. गिद्ध जानते हैं

मुर्गे की बाँग से
निकलता हुआ सूरज
चूल्हे की आग से गुजरते हुए
बन्द हो जाता है
एल्यूमिनियम के टिफिन में
बाँटकर भरपूर प्रकाश
जीने के लिये ज़रूरी उष्मा
तकिये के पास रखकर
जिजीविषा के फूल
छोड़ जाता है
कल फिर आने का स्वप्न

यह शाश्वत सूरज
उस सूरज से भिन्न है
जो ऊगता है कभी-कभार
झोपडपट्टी को
महलों में तब्दील करने की
खोखली गर्माहट लिये हुए

भर लेता है वह
अपने पेट में
मुर्गे की बाँग क्या
समूचा मुर्गा ही
और चूल्हे की आग
रोटी का स्वप्न
नींद का चैन तक

वह छोड़ जाता है अपने पीछे
उसे आकाश की ऊँचाई तक पहुँचाने वाले गिद्धों को
जो जानते हैं
सूरज के संरक्षण में
जिस्मों से ही नहीं
कंकालों से भी
माँस नोचा जा सकता है ।

                        शरद कोकास