1986 की यह एक और कविता है । मुझे बिलकुल याद नहीं आ रहा है कि यह किस सन्दर्भ में लिखी थी , लेकिन इन दिनों आन्दोलनों और बहस के बीच कई मुद्दे हैं , हो सकता है कहीं न कहीं इसका सन्दर्भ जुड़ जाए ।
हो सकता है
सबूतों और गवाहों को लेकर
शुरू होने वाली
एक स्वस्थ्य बहस
हो सकता है तब्दील हो जाये
किसी खूनी लड़ाई में
हो सकता है
अहंकारों के थकते ही
रेत पर गिरे
आस्था के स्वेदकणों की
तलाशी ली जाये
ढूँढी जाये
मित्रता की परिभाषा
ढूंढा जाये
समाज की प्रयोगशाला में
सम्बन्धों को जोड़ने वाला रसायन
मक्कारी के नाखूनों से
ताज़े ज़ख्मों की परत
उधेड़ने वाले लोग
उन्हें एक दूसरे के खिलाफ ज़हर उगलता देख
अपने होंठ चौड़े कर ले
हो सकता है
स्वार्थ और
बहकावे के
जूतो के तले में चिपका
विश्वास का कुचला चेहरा
सीढियों पर अटका रह जाये
सम्वेदनहीनता की तेज़ हवाएँ
सत्य के आवरण उतारकर
उसे नग्न कर दें
अदालत के कटघरे में
शायद तब भी
अदालत की पिछली बेंच पर बैठा
व्यवस्था का एक छुपा चेहरा
मुस्कराता ही रहे ।
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शरद कोकास