शनिवार, अगस्त 20, 2011

मुझे विश्वास नहीं है सरकारी आँकड़ों पर

1984 के डिब्बे में तलाश की तो कुछ और कवितायें इसी तेवर की मिलीं । यह एक कविता जो उस वक़्त 1984 के भोपाल गैस कांड के बाद व्यवस्था का असली चेहरा दिखाने के प्रयास में लिखी थी । इसे पढ़िये और बताइये इस कविता का सन्दर्भ उस घटना के अलावा किसी और घटना से भी जुड़ता है क्या ?


2 ज़िन्दा चेहरों की तलाश

मेरे सामने है एक अखबार
जिसमें इर्द - गिर्द बिखरीं हैं
कई खबरें
लाशों की तरह
मेरे हाथों में
एक कैल्कुलेटर
जिस पर मैं कर रहा हूँ
मौत का हिसाब
जोड़ रहा हूँ क्रूरता को
घटाते हुए भावनाओं से
गुणा करते हुए बर्बरता से

मुझे विश्वास नहीं है
सरकारी आँकड़ों पर
मैं लेना चाहता हूँ जायज़ा
उन परिस्थितियों का
जिनमें मौत भी काँप उठी थी
उन दरवाज़ों पर
जहाँ धुआँ था
लाशों की गन्ध थी
संतोष का भाव लिये
अनभिज्ञता की नकाब ओढे
कुछ चेहरे
छुपे हुए मज़बूत दीवारों के भीतर
जहाँ  माथे का फैला हुआ सिन्दूर था
जहाँ थी कुरआन
गीता और बाइबिल
लुढकी हुई दूध की बोतल
और उन सबके पीछे
अट्टहास करता हुआ
एक घिनौना चेहरा

कैलकुलेटर
केवल मुर्दा चेहरों का
हिसाब बता सकता है
ज़िन्दा चेहरों का नहीं
मुझे तलाश है ज़िन्दा चेहरों की
जो आज व्यवस्था की आड़ लेकर
हमारी परिधि से बाहर हैं

कैलकुलेटर
कल तुम्हारे हाथ में होगा
और तुम लगाओगे
उन चेहरों का हिसाब
जो कल ज़िन्दा नहीं बचेंगे ।  

---- शरद कोकास