मई 1984 में जबलपुर में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का कविता रचना शिविर हुआ था । दस दिनों तक कविता पर लगातार बातचीत होती रही । हम सभी शिविरार्थी युवा थे 22-24 साल की उम्र ,सवाल तो इस तरह करते थे जैसे क्लास में बैठे हों । और जवाब देने वालों में भी साहित्य के बड़े बड़े महारथी थे ।जब मज़दूरों पर कविता लिखने की बात आई तो एक युवा साथी ने सवाल किया .. मज़दूर मेहनत करता है लेकिन कारखाने का मालिक मुनाफा कैसे कमाता है ? उत्तर मिला .. सीधी सी बात है वह 20 रुपये का काम एक दिन मे करता है और उसकी मजदूरी 10 रुपये तय की जाती है । इस तरह उसे मजदूरी देने के बाद मालिक के एक दिन मे दस रुपये बच जाते है । अब उसके कारखाने मे 1000 मजदूर है तो उसके एक दिन मे 10000 रुपये बच जाते हैं । महीने में 30 x 10000 = 300000 और साल में 12 x300000 = 36,00000 .. | अब छत्तीस लाख में नयी फैक्टरी तो डाली जा सकती है ना ।
बहरहाल , अब मजदूर ने तो अर्थशास्त्र पढा नही है न ही उसे यह गणित आता है । उसे तो बस काम करना आता है , वह करता है । उसे तो यह भी नहीं पता होता कि उसका शोषण हो रहा है । लेकिन जो पढ़े लिखे है वे तो जानते हैं ।
आज मजदूर दिवस पर जाने कितने मजदूर उसी तरह मजदूरी मे लगे होंगे और उन्हे पता भी नही होगा कि आज मजदूर दिवस है । हमे पता है इसलिये हम मजदूरों के पक्ष में लिख रहे हैं ..भले ही वे न पढ़ पायें लेकिन हाँ उन मजदूरों को हम यह ज़रूर बतायें कि हम क्या लिख रहे है और क्यों लिख रहे हैं । इन्हे कमज़ोर मत समझिये जिस दिन ये समझ जायेंगे उस दिन अपना छीना हुआ हिस्सा मांग लेंगे ... मशहूर शायर फैज़ अहमद "फैज़" ने कहा है ..
“हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा माँगेंगे
एक खेत नहीं एक गाँव नहीं हम सारी दुनिया माँगेंगे “
उस शिविर में मजदूरो पर कविता लिखने की पारी में मैने भी एक कविता लिखी थी । मुझे पंक्ति मिली थी ..”कल का दिन बिगड़ी हुई मशीन सा था “ मैने क्या लिखा था आप भी पढिये ..
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बीता हुआ दिन
कल का जो दिन बीता
बिगड़ी हुई मशीन सा था
कल कितनी प्रतीक्षा थी
हवाओं में फैले गीतों की
गीतों को पकड़ते सुरों की
और नन्हे बच्चे सी मुस्कराती
ज़िन्दगी की
कल का दिन
बिगड़ी हुई मशीन सा था
कल राजाओं के
मखमली कपड़ों के नीचे
मेरे और तुम्हारे
उसके और सबके
दिलों की धड़कनें
काँटे मे फँसी मछली सी
तड़पती थीं
सचमुच प्रतीक्षा थी तुम्हारी
ओ आसमान की ओर बहती हुई हवाओं
तुम्हारी भी प्रतीक्षा थी
लेकिन कल का दिन
बिगड़ी हुई मशीन सा था
कल का वो दिन
आज फिर उतर आया है
तुम्हारी आँखों में
आज भी तुम्हारी आँखें
भेड़िये की आँखों सी चमकती हुई
कल का खेल
खेल रही हैं ।
---शरद कोकास