कल हमारे एक मित्र मिले कहने लगे यार आजकल आँदोलन का माहौल चल रहा है ,तुम्हारी वह कुत्ते वाली कविता याद आ रही है । हमें याद आया 1984 में जबलपुर के कविता रचना शिविर में , किसान और मजदूरों के आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में वह कविता लिखी थी । और मंच पर बहुत जोश से उस कविता का पाठ भी करते थे । डॉ.कमला प्रसाद को भी मेरी उम्र और इस कविता के तेवर की वज़ह से उस समय यह कविता अच्छी लगी थी । पुरानी ही सही आप भी पढ़ लीजिये इसे ।
हमारे हाथ अभी बाकी हैं
कल रात मेरी गली में एक कुत्ता रोया था
और उस वक़्त आशंकाओं से त्रस्त कोई नहीं सोया था
डर के कारण सबके चेहरे पीत थे
किसी अज्ञात आशंका से सब भयभीत थे
सब अपने अपने हाथों में लेकर खड़े थे अन्धविश्वास
के पत्थर
कुत्ते को मारने के लिये तत्पर
किसीने नहीं सोचा
कुत्ता क्यों रोता है
1984 में एक आन्दोलन में झंडा उठाए कवि |
उसे भी भूख लगती है
उसे भी दर्द होता है
हम भी शायद कुत्ते हो गये हैं
इसलिये खड़े हैं उनके दरवाजों पर
जो नहीं समझ सकते
हमारे रूदन के पीछे छिपा दर्द
उनके हाथों में हैं वे पत्थर
जो कल हमने तोड़े थे चट्टानों से
बांध बनवाने के लिये
या अपने गाँव तक जाने वाली
सड़क पर बिछाने के लिये
उनका उपयोग करना चाहते हैं वे
कुचलने के लिये हमारी ज़ुबान
चूर करने के लिये
हमारे स्वप्न और अरमान
वे जानते हैं
हमें जो कहनी है
वह बात अभी बाकी है
ज़ुबाने कुचले जाने से नहीं डरेंगे हम
हमारे मुँह में दाँत अभी बाकी हैं
लेकिन हम आदमी हैं कुत्ते नहीं
आओ उठे दौड़ें
और छीन लें उनके हाथों से वे पत्थर
हमारे हाथ अभी बाकी हैं
हमारे हाथ अभी बाकी हैं ।
- शरद कोकास