1984 की कविताओं के पश्चात अब आते हैं 1985 की कविताओं पर । आक्रोश तो इन कविताओं में भी है .. स्वाभाविक है .. उम्र ही कुछ ऐसी थी , और इस उम्र में इतना आक्रोश तो जायज़ है ना ?
सोने से दमकते हुए हमारे चेहरे
गूगल से साभार |
आग आग है आग कब तक रुकेगी
आग पेट से उठती है
पहुंचती है दिमागों तक
भूख कोसती है परिस्थितियों को
रह जाती है
खाली पेट ऐंठन
आक्रोश सिमटता है मुठ्ठियों में
मुठ्ठियों को
हवा में उछालने की ताकत
मुहैया होती है रोटी से
लेकिन....
रोटी तो तुमने छीन ली है
और खिला दी है
अपने पालतू कुत्तों को
आग आग है
फिर भी बढ़ती है
चिंगारियाँ आँखों से निकलती हुई
ताकत रखती है
तुम्हे भस्म कर देने की
लेकिन....
तुमने चढ़ा लिया है मुलम्मा
अपने जिस्म पर
आग उठती है
होठों से बरसती है
लेकिन तुमने पहन लिये हैं कवच
जिन पर असर नहीं होता
शब्द रूपी बाणों का
आग अब पहुंचती है
हमारे हाथों तक
अब हमारे हाथों में
सिर्फ आग होगी
और उसमें होंगे
सोने से दमकते हमारे चेहरे
तुम्हारी नियति ...?
- शरद
कोकास