सोमवार, अक्टूबर 19, 2009

मुँह ढाँककर सो जाने के लिये नहीं आती हैं छुट्टियाँ ।

दीवाली के कुछ दिनो बाद छुट्टियाँ समाप्त हो जायेंगी । त्योहार पर घर आये शहरों में पढ़ने वाले बच्चे, फौजी जवान , शहर में रहकर नौकरी करने वाले गाँव के युवक और रोज़ी-रोटी की तलाश में शहर दर शहर भटकते मजदूर फिर लौट जायेंगे । छुट्टियों में घर लौटना क्या होता है यह वही जान सकता है मजबूरियों ने जिसे घर से दूर कर दिया हो । लेकिन छुट्टियाँ भी जीवन का एक हिस्सा होती हैं , घर में कुछ समय रहने का सुख तो होता है लेकिन चिंतायें ,परेशानियाँ ज़िम्मेदारियाँ यहाँ भी कहाँ पीछा छोड़ती हैं । इस दृश्य को एक कवि की दृष्टि से देखा है मैने अपनी इस कविता ” छुट्टियाँ “ में ।

                                              छुट्टियाँ


मशीन के पुर्जे सी ज़िन्दगी में 

तेल की बून्द बनकर आती हैं छुट्टियाँ
गाँव में बीमार माँ की आँखों में 
जीने की अंतिम आस बनकर
उतर आती हैं छुट्टियाँ 

बहन की सूनी कलाईयों में चूड़ियाँ 
पिता के नंगे जिस्म में कुर्ता 
भाई की आँखों में 
आगे पढ़ने की ललक 
रूप बदलती जाती हैं छुट्टियाँ 

पत्नी की देह पर अटके चीथड़ों में 
परिवर्तन की आस बन जाती हैं छुट्टियाँ 
तुलसी के बिरवे के लिये जलधारा 
लक्ष्मी गाय मोती कुत्ते के लिये 
स्पर्श की चाह बन जाती हैं छुट्टियाँ 

बाग-बगीचों खेत खलिहान 
नदी पहाड़ अमराईयों के लिये 
गुजरे कल की याद 
बन जाती है छुट्टियाँ




आने का इंतज़ार करते हैं हम  
न खत्म होने की कामना
हमारी सोच की सीमा से पहले ही

अचानक खत्म हो जाती हैं छुट्टियाँ

सच पूछो तो 

मुँह ढाँककर सो जाने के लिये
नहीं आती हैं छुट्टियाँ ।

                   -शरद कोकास 


(चित्र गूगल से और रजनीश के. झा के ब्लॉग 'कुछ अनकही सी' से  साभार )