शुक्रवार, मार्च 16, 2012

1987 की एक और कविता

बचपन में अपने जन्मगृह बैतूल की वे शामें याद हैं जिनमें मेरे ताऊजी मुनिश्री मदन मोहन कोकाश ,मकान के दालान में बैठकर रामचरित मानस का पाठ करते थे । मोहल्ले के लोग , उनके मित्र  , और भी जाने कहाँ कहाँ से लोग आकर बैठ जाते थे । कोई फेरीवाला , कोई भिखारी , कोई दुकानदार । सर्दियों के दिनों में अलाव भी जल जाता था । बड़े होने पर रामकथा के पाठ का यह बिम्ब याद रहा और उसने इस तरह कविता का रूप लिया ।अगर आप ध्यान से देखेंगे तो एक महत्वपूर्ण बात कही है मैंने इस कविता में । 

राम कथा 

कम्बल के छेदों से
मदन मोहन कोकाश 
हाड़ तक घुस जाने वाली
हवा के खिलाफ
लपटों को तेज़ करते हुए
वह सुना रहा है
आग के इर्द गिर्द बैठे लोगों को
राम बनवास की कथा

राम थे अवतारी पुरुष
राम ने आचरण किया
सामान्य मनुष्य की तरह
राम और कहीं नहीं
हमारे तुम्हारे भीतर हैं

अवचेतन में बसे चरित्र की
विवेचना करते हुए
वह विस्मय भर देता है
सबकी आँखों में
वह गर्व से कहता है
उसने यह तमाम बातें
कल अपने मालिक के घर सुनी थी
एक पहुंचे हुए फकीर के मुख से

चिनगारी की तलाश में
बैतूल का वह मकान 
फूँकते हुए राख का ढेर
वह सोचता है
राम तो राजा थे
उसके मालिक भी राजा हैं
उसकी नियति तो बस
प्रजा  होना है ।
                      - शरद कोकास