रविवार, मई 24, 2009

बहारों फूल बरसाओ मेरा मेहबूब आया है

इन दिनो शादियों का मौसम है.आप भी शादियों में जाते होंगे और बैंड वालों को अपनी पसन्द की धुन बजाने का आदेश देकर उस पर नृत्य भी करते होंगे.उन बैंड वालों पर कभी ध्यान दिया है आपने? उनकी ज़िन्दगी के बारे में सोचा है? आइये साथ मिलकर सोचते हैं शरद कोकास की इस कविता में..

बैंड बाजे वाले
बहारों फूल बरसाओ मेरा मेहबूब आया है
लगभग आखरी धुन होती है
दुलहन के द्वार पर जिसे बजाते है बैण्ड्वाले
वे खामोश उदासी में प्राण फूंकते हैं
हवा उनके संगीत पर नृत्य करती है
उनके चेहरे पर इकठ्ठा रक्त
शर्माती दुलहन के चेहरे को मात देता है
तानसेन की आलाप से ऊंचे स्वरों में
उनका क्लेरेनेट अलापता है राग दीपक
तभी हर शाम उनके घर चराग जलते हैं

पृथ्वी की छाती में धड़कता है उनका बैण्ड
मरे हुए चमडे़ से निकलती है आवाज़
जीवन का स्पन्दन बन जाती है

पांवों में थिरकन पैदा करती है
उनके पसीने की महक से सराबोर धुनें
सभ्यता की खोल से बाहर आते हैं आदिम राग
पीढियों का अंतर खत्म हो जाता है

उनकी परम्परा में शामिल है सबकी भूख
उनके पेशे में उनकी अपनी जाति
जन्म से लेकर मृत्यु तक हर उत्सव में
पीटा जाता है उनकी अहमियत का ढिन्डोरा
उनके संगीत से देवता जागते हैं
उनके संगीत से देवता प्रसन्नहोते है
अपनी कला मे सिध्द हस्त होने के बावजूद
कलाकार के उतरे हुए विशेषण में वे बाजेवाले कहलाते हैं

सदियों से मिली उपेक्षा और अपमान
फटे ढोल की तरह गले में लटकाये
प्लेट और पेट के तयशुदा
अनुपात वाली दावतो में
जूठन की तरह बचे रहते हैं वे
एक सुरीली तूती की तरह बजते हैं बैण्ड्वाले
इस बेसुरी दुनिया के नक्कारखाने में.


शरद कोकास