बुधवार, मई 26, 2010

यह कविता उस पसीने के बारे में नहीं है ।

उफ़ यह गर्मी , उफ़ यह पसीना ।कहते हैं गर्मी के बारे में सोचने से गर्मी कम नहीं होती और पसीने के बारे में सोचने से पसीना बहना कम नहीं होता ।मैंने भी एक बार पसीने के बारे में सोचने की कोशिश की थी और बन गई एक कविता । अब इसे पढ़कर यह न कहियेगा कि पसीने के बारे में मैंने आपकी सोच बदल दी है , और यह भी कि कवि भी कितने पागल होते हैं हम पसीना न बहे इसके लिये उपाय कर रहे हैं और ये न जाने क्या क्या सोच रहे हैं । ठीक है , मैं भी तो यही कह रहा हूँ कि यह कविता उस पसीने के बारे में नहीं है ।


पसीना

उन्माद के दौरान
हथेलियों से उपजा पसीना यह नहीं
उन बादलों का पसीना है
जो भरसक कोशिश करते हैं
हमारे खेतों में बरसने की
 
जान बचाने के लिये पैरों में पड़े
डरपोक का पसीना यह नहीं
उस वर्दी का पसीना है
जो हमारी आपकी रक्षा में
छलनी हो जाने के लिये
हरदम तैयार रहती है
 
कोड़े बरसाने वाले
आततायी की देह से उपजा
पसीना यह नहीं
उस हथौड़े का पसीना है
जिसकी एक एक चोट
हमारे बच्चों के लिये
निवाला लेकर आती है

हुस्न को जकड़ लेने के लिये बेताब
बाँहों का पसीना यह नहीं
सर पर ढोई जा रही ईटों का पसीना है
जो छाँव के लिये छत बनाते हैं
यह हाथ ठेले के पहियों का पसीना है
जो आपकी सुविधायें ढोता है
 
पेट भर खाने से उपजी
उर्जा का पसीना यह नहीं
मुनाफे की भागदौड़ से आया
पसीना यह नहीं

यह उस धरती का पसीना है
जिसके बनाये मेहनत और पसीने के
समीकरण को
आपने अपने हक़ में ठीक कर लिया है |

                            शरद कोकास