कल कवि कुमार अम्बुज का फोन आया...” कैसे हो शरद ? बहुत दिनों से तुम्हारा कोई समाचार नहीं मिला ? “ कुमार भाई की इस चिंता ने मुझे द्रवित कर दिया । इस उम्र में जब सब लोग अपनी अपनी चिंता में व्यस्त रहते हैं किसी को इतनी चिंता कहाँ होती है कि पूछे कोई किस हाल में जी रहा है । कुमार अम्बुज जी पिछले दिनों नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृति ले चुके हैं और अपनी ज़िन्दगी की दूसरी पारी खेलने के लिये कमर कस रहे हैं । लेकिन यह कवि ही हो सकता है जो अपनी चिंता के साथ ज़माने भर की चिंता करे । प्रस्तुत है श्री कुमार अम्बुज की यह कविता उनके संग्रह “ क्रूरता “ से ।
अड़तालीस साल का आदमी
अपनी सबसे छोटी लड़की के हाथ से
पानी का गिलास लेते हुए
और अपनी सबसे बड़ी लड़की की चिंता में डूब जाता है
नाइट लैम्प की नीली रोशनी में
वह देखता है सोई हुई बयालीस की पत्नी की तरफ
जैसे तमाम किए- अनकिए की क्षमा माँगता है
नौकरी के शेष नौ - दस साल
उसे चिड़चिड़ा और जल्दबाज़ बनाते हैं
किसी अदृश्य की प्रत्यक्ष घबराहट में घिरा हुआ वह
भूल जाता है अपने विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ
अड़तालीस का आदमी
घूम- फिर कर घुसता है नाते - बिरादरी में
मिलता है उन्ही कन्दराओं उन्हीं सुरंगों में
जिनमें से एक लम्बे युद्ध के बाद
वह बमुश्किल आया था बाहर
इस तरह अड़तालीस का न होना चुनौती है एक
जिसे बार - बार भूल जाता है
अड़तालीस साल का आदमी ।
-- कुमार अम्बुज
लड़कियों के पिता की जिम्मेदारियों पर गहरा चिंतन दर्शाती एक सुन्दर कविता ।
जवाब देंहटाएंमिड-लाइफ क्राइसिस से गुजरते व्यक्ति के अंतर्द्वंद्व का बहुत ही सही खाका खींचा है कवि अम्बुज ने
जवाब देंहटाएंजब वक्त हाथों से फिसलता हुआ प्रतीत होता है ....और गुजरे वक्त में बहुत कुछ ना कर पाने की टीस भी साथ होती है..
बेहद गहन अभिव्यक्ति है………कवि ने हर उस इंसान के मन की व्यथा लिख दी है जो उम्र के उस दौर से जब गुजरता है तो कैसा महसूस करता है…………बेह्द उम्दा।
जवाब देंहटाएंअड़तालिस का आदमी यही सोचता है।
जवाब देंहटाएंसशक्त रचना, सामाजिक बाध्यताओं की।
जवाब देंहटाएंलीजिए अब आप के बाद कुमार अम्बुज भी उसी राह पर हैं। जरूरी नहीं है कि सारी उम्र नौकरी ही की जाए।
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अड़तालीस साल के इस आदमी को बहुत बहुत शुभकामनाएं।
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कविता तो खैर अपनी बात कहती ही है।
are kahaan Salmaan khan bhi do saal baad 48 ka ho jaayega.. :P
जवाब देंहटाएंKumaar ji ko padhna hamesha sukhad rahta hai.. aabhaar bhaia
जवाब देंहटाएंsundar...dil ko chhoo lene valee kavitaa. kumar ambuj hamare samay ke saarthak kaviyon men se hai. ve mere priy rahe hai. kavitaa ke lihaaz se aur vyaavahaarik taur par bhi.
जवाब देंहटाएंbahut samvedansheel aur sunder bhaw hain.
जवाब देंहटाएंबहुत ही मर्मस्पर्शी कविता। हम भी उस पायदान पर पैर रखने वाले हैं। होगा वह महीना मई का। किंतु ईश्वर ने हमसे माता पिता का साया बचपन मे ही छीनकर अब उसकी भरपाई के लिये एक "खुशहाल परिवार" के तोहफे से नमाज़ा है। उस परवरदिगार की माया ही अजीब है। तभी तो हम सभी उस परमसत्ता को स्वीकारते हैं। उनका शुक्रगुज़ार रहते हैं। रचना बहुत ही सुंदर।
जवाब देंहटाएंएक लाइन में कहूंगा कि यह कविता सिर्फ़ और सिर्फ़ कुमार अंबुज लिख सकते हैं!
जवाब देंहटाएंAMBUJ BHAI KO SALAAM....HAMESHA....HAMESHA....
जवाब देंहटाएंसटीक चित्रण!
जवाब देंहटाएंचिंताओं से व्यथित आदमी की परिपक्व चिंता
जवाब देंहटाएंएक अड़तालीस साल के परिपक्व आदमी या ये कहें की इंसान की परिपक्व कविता और पोस्ट दोनों ही लाजवाब लगीं.
जवाब देंहटाएंउफ़! बेहतरीन, मार्मिक प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंजीवन के इस पड़ाव का नितांत यथार्थ यही है. बहुत सुंदर ढंग से व्यक्त किया है.
जवाब देंहटाएंyou made my day.....
जवाब देंहटाएंइतने कम शब्दों में पूरे अड़तालीस साल समेट दिए........
बहुत ही गहन बातें। मात्र चंद शब्दों में एक शख्स के सामाजिक, आर्थिक, भावनात्मक पहलूओं को बहुत ही सुंदर ढंग से अभिव्यक्त किया गया है।
जवाब देंहटाएंएक चिंतित व्यक्तित्व का बेहतरीन शब्द चित्रण किया है आपने ! बधाई शरद भाई !
जवाब देंहटाएंगहन भावों के साथ विचारणीय प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता. आभार.
जवाब देंहटाएं‘ यह कवि ही हो सकता है जो अपनी चिंता के साथ ज़माने भर की चिंता करे । ’
जवाब देंहटाएंतभी तो, वह सवाल भी करता है कि सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में क्यों??????????
बहुत देर से सोच रहा हूँ कि यह कविता है या अपना दर्द !
जवाब देंहटाएंकुमार अंबुज तक मेरा प्रणाम पहुंचे।
एक अच्छी कविता पढना गुजरना है अन्तर्यात्रा से । मिलना है अपने आप से बहुत आत्मीयता के साथ..। अम्बुज जी के साथ आपको भी नमन इस प्रस्तुति के लिये ।
जवाब देंहटाएंयथार्थ है , इस उम्र का आदमी अपनी जिम्मेदरियों को लेकर बहुत चिंतित होता है
जवाब देंहटाएंकाश कि अडतालीस साल का आदमी उबर सके अपने अडतालीस साल का होने के अहसास से । ब्लॉग पर वापिस आकर इतना अच्चा लग रहा है ।
जवाब देंहटाएंअच्छा
जवाब देंहटाएंजीवन के यथार्थ को हूबहू लिख दिया है ..... ४८ के परिपक्व की तरह परिपक्व रचना ...
जवाब देंहटाएं"अड़तालीस का आदमी
जवाब देंहटाएंघूम- फिर कर घुसता है नाते - बिरादरी में
मिलता है उन्ही कन्दराओं उन्हीं सुरंगों में
जिनमें से एक लम्बे युद्ध के बाद
वह बमुश्किल आया था बाहर"
कुमार अंबुजजी की पंक्तियां बिल्कुल सत्य विश्लेषण हैं । सार्थक रचना पढवाने के लिए आभार ।