गुरुवार, मई 31, 2012

1988 की कवितायें- झील से प्यार करते हुए

" झील मुझसे प्रेम तो करती है /लेकिन हवाओं पर उसका कोई वश नहीं है । " रश्मि जी ने इन पंक्तियों को पढ़कर पूछा ......आखिर कब तक ये हवायें नावें डुबोती रहेंगी । यह हवाएँ समाज की हवाएँ हैं . परम्पराओं की हवाएँ , प्रेम के दुश्मनों की हवाएँ .. जब तक ये हैं तब तक ये नाव डुबोती ही रहेंगी । लेकिन कभी न कभी तो बगावत के स्वर जन्म लेंगे । इसलिये कि ऐसी हवाएँ भी यहाँ उपस्थित हैं जो एक दोस्त की तरह कानों में फुसफुसाती है और सही राह दिखाती हैं ...शायद इसी विचार को प्रकट कर रही है इस श्रंखला की यह अंतिम कविता ।


 झील से प्यार करते हुए –तीन

झील की सतह से उठने वाले बादल पर
झील ने लिखी थी कविता
मेरी उन तमाम कविताओं के ऐवज में
जो एक उदास दोपहरी को
झील के पास बैठकर
मैने उसे सुनाई थीं
कविता में थी
झील की छटपटाहट

मुझे याद है झील डरती थी
मेरे तलवार जैसे हाथों से
उसने नहीं सोचा होगा
हाथ दुलरा भी सकते हैं

अपने आसपास
उसने बुन लिया है जाल संस्कारों का
उसने मनाही दी है अपने बारे में सोचने की
जंगल में बहने वाली हवा
एक अच्छे दोस्त की तरह
मेरे कानों में फुसफुसाते हुए गुज़र जाती है
दोस्त ! प्रेम के लिये सही दृष्टि ज़रूरी है

मैं झील की मनाही के बावज़ूद
सोचता हूँ उसके बारे में
और सोचता रहूंगा
उस वक़्त तक
जब तक झील
नदी बनकर नहीं बहेगी
और बग़ावत नहीं करेगी
आदिम संस्कारों के खिलाफ ।