यह जीवन भी रेल में की गई यात्रा की तरह है जहाँ एक स्टेशन से हम यात्रा प्रारम्भ करते है और किसी एक स्टेशन पर समाप्त करते हैं । प्रारम्भ का स्टेशन तो हमें पता होता है लेकिन गंतव्य के स्टेशन का हमें पता नहीं होता वह कब आयेगा ..हम सशंकित होकर हर किसी से पूछते हैं , जब यह जवाब मिलता है कि अरे ..अभी तो आपका अंतिम स्टेशन बहुत दूर है तो हम खुश हो जाते हैं । और अगर कोई कह दे कि बस आपका अंतिम स्टेशन आने ही वाला है तो हम दुखी हो जाते हैं । कई लोग सोचते हैं कि अभी तो हमें बहुत दूर तक यात्रा करनी है वे अचानक किसी स्टेशन पर उतर जाते हैं ..हम सोचते ही रह जाते हैं ..अरे यह तो कहता था बहुत दूर का सफर है बीच में ही उतर गया । कुछ लोग यात्रा करते करते ऊब जाते हैं और सोचते हैं कि यह अंतिम स्टेशन कब आयेगा ? और कुछ अंत तक यात्रा में नहीं ऊबते और खुशी-खुशी आखरी स्टेशन पर उतर जाते हैं ।
सोचकर देखिये कितना कुछ सोचा जा सकता है इस “लोहे के घर” में यात्रा करते हुए .. इस यात्रा में हम सभी हम सफर हैं । किसीने यात्रा जल्दी शुरू कर दी है किसीने देर से । कोई बीस स्टेशन देख चुका है कोई अठ्ठाइस कोई पचास कोई सत्तर । जैसे जैसे स्टेशन आयेंगे नये मुसाफिर भी शामिल होते जायेंगे कोई पहले उतर जायेगा कोई देर तक यात्रा करता रहेगा । सबसे महत्वपूर्ण होगा साथ बिताया हुआ समय ..।जब एक न एक दिन आखरी स्टेशन पर उतरना ही है तो क्यों न करें ऐसा कि हम यह समय इस तरह साथ बितायें कि हमारे स्टेशन पर उतर जाने के बाद भी बचे हुए वे सहयात्री हमे याद रख सकें ।
अरे.. मैं जिस कविता को यहाँ देने जा रहा था उसका सन्दर्भ तो यह कतई नहीं था .. आप सोच रहे होंगे .. रूमानी होते होते पटरी बदलकर यह दार्शनिक कैसे हो गया ?, अब क्या करूँ ...लोग सलाह ही इतनी गम्भीर देते हैं । खैर .. इस कविता का सन्दर्भ देने की ज़रूरत ही नहीं आप पढ़ेंगे तो खुद समझ जायेंगे कि मैं क्या कहना चाहता हूँ ।और यह भी कि इस कविता और पिछली कविता की “रूमानियत “ में क्या फर्क है?
लोहे का घर - दो
फुटबोर्ड पर लटककर
यात्रा करते हुए
याद आती हैं
सुविधाजनक स्थान पर बैठकर
की गई यात्राएँ
आरक्षित बर्थ पर लेटे हुए
फुटबोर्ड पर लटक कर
सही जगह की तलाश में
की गई यात्राएँ
उसी तरह जैसे
सुविधाओं से युक्त जीवन में
गर्दिश के दिनों की याद
पैदा करती है रूमानियत ।
-- शरद कोकास
(चित्र गूगल से साभार )