ख़बर मिली है कि आज रात कवि लीलाधर मंडलोई दिल्ली से भिलाई आ रहे हैं , मै इतना खुश हूँ कि उनका कविता संग्रह “ मगर एक आवाज़ “ लेकर बैठ गया हूँ और उनकी कवितायें पढ़ रहा हूँ । वे भिलाई इस्पात संयंत्र के राजभाषा के एक कार्यक्रम में भाग लेने आ रहे हैं और भिलाई में ही अपने साढ़ूभाई महेश के घर भी जाने वाले हैं । उनके आगमन को लेकर कवि अशोक सिंघई और महेश ही नहीं हम सभी मित्र उत्साहित है और उनके कविता पाठ के आयोजन की तैयारी में लगे हैं । इस कार्यक्रम की रपट तो ' पास पड़ोस " पर बाद में दूँगा । फ़िलहाल पढ़िये संग्रह से उनकी यह कविता “लोहे का स्वाद “ यह कविता पढ़ने में बहुत सरल लगती है और देखने में भी , लेकिन इस कविता में कई कई स्वाद हैं …देखें कितने स्वाद आप जान पाते हैं ।
लोहे का स्वाद
कुछ ऐसी वस्तुएं जिनके होने से
आत्महत्या का अंदेशा था
बदन से उतार ली गईं
बेल्ट और दाहिने हाथ की अंगूठी
पतलून की जेब में पड़े सिक्के
बायें हाथ की घड़ी कि उसमें ख़तरनाक समय था
जूते और यहाँ तक गले में लटकती पिता की चेन
अब वे एक हद तक निश्चिन्त थे
ख़तरा उन्हे इरादों से था
जिनकी ज़ब्ती का कोई तरीका ईज़ाद नहीं हुआ था
सपनों की तरफ़ से वे ग़ाफ़िल थे
और इश्क के बारे में उन्हे कोई जानकारी न थी
घोड़े के लिए सरकारी लगाम थी
नाल कहीं लेकिन आत्मा में ठुकी थी
वह एक लोहे के स्वाद में जागती रात थी
लहू सर्द नहीं हुआ था
और वह सुन रहा था
पलकों के खुलने - झुकने की आवाज़ें
पीछे एक गवाह दरख़्त था
जिसकी पत्तियाँ सोई नहीं थीं
एक चिड़िया गुजर के अभी गई थी सीखचों से बाहर
और वह उसके परों से लिपटी हवा को
अपने फेफड़ों में भर रहा था
बाहर विधि पत्रों की दुर्गन्ध थी
बूट जिसे कुचलने में बेसुरे हो उठे थे
वह जो किताब में एक इंसान था
एक नए किरदार में न्याय की अधूरी पंक्तियाँ जोड़ रहा था
बाहर हँसी थी फरेबकारी की
और कोई उसकी किताबों के वरक़ चीथ रहा था
मरने की कई शैलियों के बारे में उसे जानकारी थी
लेकिन वह जीने के नए ढब में था
इस जगह किसी मर्सिए की मनाही थी
वह शुक्रिया अदा कर रहा था चाँद का
जो रोशनदान से उतर उसके साथ गप्पगो था
बैठकर हँसते हुए उसने कहा
लिखो ! न सही कविता – दुश्मन का नाम ।
लीलाधर मंडलोई
( चित्र शरद कोकास के एलबम से व गूगल से साभार )