बुधवार, अक्टूबर 05, 2011

हमारे खून पसीने से पैदा की हुई रोटियाँ

1984 की यह एक और कविता क्या आक्रोश झलकता था उन दिनो.... हाहाहा ..


बची हुई खाल

कल उन्होंने दी थी हमें कुल्हाड़ी
जो उन्होंने छीनी थी हमारे बाप से
जिसे हम अपने पैरों  पर मार सकें
और रोटी की तलाश में
टेक दें अपने घुटने
उनकी देहरी पर
रोटी के टुकड़े को फेंकने की तरह
उन्होंने उछाला था आदर्श वाद
रोटी का एक टुकड़ा भी मिले तो
आधा खा कर संतोष करो
और बढ़ते रहो

आज उन्होंने
बिछा लिये हैं कंटीले तार
अपनी देहरी पर
ताकि ज़ख्मी हो सकें
हमारे घुटने
हमारे जैसे
याचकों के लिये
खुला है अवश्य
सामने का द्वार
पिछला रास्ता तो
संसद भवन को जाता है

कंटीली बाड़ के भीतर
वे मुस्काते है
हम कभी हाथ जोड़ते हैं
कभी हम हाथ फैलाते हैं
लेकिन एक दिन आयेगा
जब हमारी दसों उंगलियाँ
आपस में नहीं जुड़ेंगी
वे उस ओर मुड़ेंगी
जहाँ होगी एक मोटी सी गरदन
बाहर निकल आयेगी वह जीभ
जो बात बात पर
आश्वासन लुटाती है
तोड़ देंगे हम
अपने ज़ख्मी पैरों से
वह कँटीली बाड़
और घुस जायेंगे
उन हवेलियों में
जहाँ सजी होगी
चांदी के मर्तबानों में
हमारे खून पसीने से
पैदा की हुई रोटियाँ
छीन लेंगे हम उन्हें और
बाँट लेंगे
अपने सभी भाईयों के बीच

हम बता देंगे
माँस और हड्डियाँ
नुच जाने के बाद भी
बची हुई खाल
अपने बीच से
हमेशा के लिये
विदा कर सकती है
कसाईयों को ।