गुरुवार, जनवरी 12, 2012

१९८६ में हमने भी बसंत पर कुछ पंक्तियाँ लिखी थी जो हमें एक गज़ल की तरह लगी थी .. उम्मीद है आपको भी गज़ल की तरह ही लगेंगी . न लगे तो माफ़ कर दीजिएगा . आखिर ग़ज़ल मेरी विधा नहीं है .

                     फिर इस बसंत में

फिर  इस  बसंत  में होंगी बातें फूलों की
अदब के रंग खुशबू बहार और  झूलों की

पीठ से जा लगे हैं जाने कितने ही पेट
बसंत को याद नहीं है बुझते चूल्हों की

अब दरख्तों  का घना साया महलों पर है
अपने हिस्से में मिली छाँव बस बबूलों की

उनकी दरियादिली का आजकल यह आलम है
पहाड़ों पर बसी है  बस्ती  लंगड़ों – लूलों की

अब नही आता है यौवन नन्ही कलियों पर
नज़रे उन पर जो चुभी हैं दरिन्दे शूलों की

वो  ज़खीरा  लिये  बैठे  है हथियारों का
सज़ा मिलेगी हवाओं को उनकी भूलों की

अब इस मुल्क की पैमाइश का पैमाना क्या
नक्शों  में  हो रही है जंग तो भूगोलों की

जले बदन की बू छुपी है इन बयारों में
आज बाज़ार में कीमत बढ़ेगी दूल्हों की

किससे  शिकायत करें  और किस  मुँह से
फिर इस अकाल में सूखी फसल उसूलों की

                        - शरद कोकास

17 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी, २५ वर्ष बाद भी प्रभावी..

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  2. वो ज़खीरा लिये बैठे है हथियारों का
    सज़ा मिलेगी हवाओं को उनकी भूलों की
    सुन्दर पस्तुति,शरद जी,२५ वर्ष पूर्व लिखी इन पंक्तियों का असर आज की हवाओं दिख रहा है .

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  3. जिस भी विधा में कही गयी हों..पर पंक्तियाँ असरदार हैं...

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  4. "पीठ से जा लगे हैं जाने कितने ही पेट
    बसंत को याद नहीं है बुझते चूल्हों की"
    सशक्त गजल।
    आज भी प्रासंगिक है।

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  5. अब दरख्तों का घना साया महलों पर है
    अपने हिस्से में मिली छाँव बस बबूलों की
    बेहद असरकारक और समसामयिक भी यह १९८६ की लिखी यह रचना

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  6. किससे शिकायत करें और किस मुँह से
    फिर इस अकाल में सूखी फसल उसूलों की
    अब दरख्तों का घना साया महलों पर है
    अपने हिस्से में मिली छाँव बस बबूलों की
    वाह !!! शरद भाई गज़ल के ये दो शेर विशेष रूप से मन को छू गये.

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  7. धन्यवाद अरुण । यह दोनो शेर मुझे भी पसन्द हैं । कभी कभी लगता है कि क्या यह मेरे ही शेर हैं ( मज़ाक है यार )

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  8. पूरी गज़ल लाज़वाब है।
    बसंत की छांव में सूखते दरख्तों पर पैनी नज़र है आपकी।

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