1986 की यह एक और कविता है । मुझे बिलकुल याद नहीं आ रहा है कि यह किस सन्दर्भ में लिखी थी , लेकिन इन दिनों आन्दोलनों और बहस के बीच कई मुद्दे हैं , हो सकता है कहीं न कहीं इसका सन्दर्भ जुड़ जाए ।
हो सकता है
सबूतों और गवाहों को लेकर
शुरू होने वाली
एक स्वस्थ्य बहस
हो सकता है तब्दील हो जाये
किसी खूनी लड़ाई में
हो सकता है
अहंकारों के थकते ही
रेत पर गिरे
आस्था के स्वेदकणों की
तलाशी ली जाये
ढूँढी जाये
मित्रता की परिभाषा
ढूंढा जाये
समाज की प्रयोगशाला में
सम्बन्धों को जोड़ने वाला रसायन
मक्कारी के नाखूनों से
ताज़े ज़ख्मों की परत
उधेड़ने वाले लोग
उन्हें एक दूसरे के खिलाफ ज़हर उगलता देख
अपने होंठ चौड़े कर ले
हो सकता है
स्वार्थ और
बहकावे के
जूतो के तले में चिपका
विश्वास का कुचला चेहरा
सीढियों पर अटका रह जाये
सम्वेदनहीनता की तेज़ हवाएँ
सत्य के आवरण उतारकर
उसे नग्न कर दें
अदालत के कटघरे में
शायद तब भी
अदालत की पिछली बेंच पर बैठा
व्यवस्था का एक छुपा चेहरा
मुस्कराता ही रहे ।
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शरद कोकास
Bahut hi sundar.. Aabhar...
जवाब देंहटाएंकुछ भी हो सकता है, होता रहता है
जवाब देंहटाएंपर व्यवस्था का चेहरा
मुस्कराता ही रहता है।
व्यवस्था सदा मुस्कराती रहेगी,
जवाब देंहटाएंकितना भले ही सताती रहेगी।
सम्वेदनहीनता की तेज़ हवाएँ
जवाब देंहटाएंसत्य के आवरण उतारकर
उसे नग्न कर दें
अदालत के कटघरे में
कविता सार्वकालिक होती है...... अगर रचना सार्थक हो तो देश काल परिस्थितयां इसे बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं करतीं. कविता भले ही 1986 में लिखी गयी हो मगर आज के परिवेश में भी सामयिक और प्रासंगिक है.
आज भी प्रासंगिक और सामयिक
जवाब देंहटाएंव्यवस्था निर्मम ही होती है । कोई भी अच्छी रचना सार्वकालिक ही होती है ।
जवाब देंहटाएंकुछ भी हो सकता है
जवाब देंहटाएंव्यवस्था का चेहरा तो हमेशा ही मुस्कुराता रहेगा।
जवाब देंहटाएंसम्वेदनहीनता की तेज़ हवाएँ
जवाब देंहटाएंसत्य के आवरण उतारकर
उसे नग्न कर दें
अदालत के कटघरे में
शायद तब भी
अदालत की पिछली बेंच पर बैठा
व्यवस्था का एक छुपा चेहरा
मुस्कराता ही रहे ।
यथार्थ ।
सामयिक हैं पंक्तियाँ आपकी.
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