शनिवार, सितंबर 18, 2010

भीख देने से पहले भी कभी कोई इतना सोचता है ?

               अक्सर बस अड्डे पर , रेल्वे स्टेशन के प्लेट्फॉर्म पर जब हम अपने मित्रों या परिजनों के साथ खड़े होते हैं कि अचानक फटे कपड़ों में ,एक कृशकाय ,दीन हीन व्यक्ति हाथ फैलाए हमारे सामने आ खड़ा होता है । यह स्थिति बहुत अजीब सी होती है ,मन में दया तो उमड़ती है लेकिन वहीं कहीं पढ़ी -लिखी दुनिया से पाया हुआ यह संस्कार भी सर उठाने लगता है कि इस तरह भिक्षावृत्ति को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिये इसलिए कि भीख मांगना एक अपराध है ।ऐसी स्थिति में अगर हम भीख देते हैं तो मुश्किल और न दें तो भी मुश्किल । एक पल के लिये हम सोचते हैं कि हम क्या करें और या तो उसे जेब से निकाल कर एक सिक्का दे देते हैं या कहते हैं कि आगे जाओ । एक बार ऐसा हुआ कि मैंने इससे थोड़ा सा ज़्यादा सोच लिया … बस यह कविता बन गई । पुरानी कविताओं को तलाशते हुए 1984 की फाइल में यह मिल गई , सोचा आपके साथ भी यह शेयर कर लूँ…

 क्योंकि हम मूलत: भिक्षावृत्ति के खिलाफ हैं

हमारे सामने फैले हुए हाथ पर
चन्द सिक्के रखने की अपेक्षा
हमने रख  दी है कोरी सहानुभूति
और उसके फटे हुए झोले में
डाल दिये हैं कुछ उपदेश
क्योंकि हम मूलत:
भिक्षावृत्ति के खिलाफ़ हैं

उसकी ग़रीबी पर
बहाए हैं मगरमच्छ के आँसू
और गालियाँ दी हैं अमीरों को
क्योंकि हम मूलत:
भिक्षावृत्ति के खिलाफ़ हैं

उसकी फटेहाली पर
व्यक्त किया है क्षोभ
और कोसा है व्यवस्था को
उसकी ओर उंगली दिखाते हुए
 क्योंकि हम मूलत:
भिक्षावृत्ति के खिलाफ़ हैं

उससे पूछा है
कोई काम करोगे
उसके काम माँगने पर
उछाल दिया है आश्वासन
नेताओं की तरह
क्योंकि हम मूलत:
भिक्षावृत्ति के खिलाफ़ हैं

फिर हमारी बस आ जाती है
हम बैठकर चले जाते हैं
चाँवल से भी वज़नी
हमारे उपदेश और सहानुभूति
और आश्वासन
उसके झोले में लगे विवशता
के पैबन्द फाड़
धूल भरी सड़क पर
जहाँ- तहाँ गिर जाते हैं ।
          
                     -  शरद कोकास 

( चित्र में दुर्ग के रेल्वे स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर एक भिखारी , दूसरा हाजी अली की दरगाह पर ) 

68 टिप्‍पणियां:

  1. हमारे उपदेश और सहानुभूति
    और आश्वासन
    उसके झोले में लगे विवशता
    के पैबन्द फाड़
    धूल भरी सड़क पर
    जहाँ- तहाँ गिर जाते हैं ।
    बहुत सुन्दर रचना .. कोरे सहानुभूति स्वयं सहानुभूति के पात्र हैं.

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  2. हमारे उपदेश और सहानुभूति
    और आश्वासन
    उसके झोले में लगे विवशता
    के पैबन्द फाड़
    धूल भरी सड़क पर
    जहाँ- तहाँ गिर जाते हैं।

    बहुत अच्छी रचना...सुंदर अभिव्यक्ति

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  3. सारे मायने धरे रह जाते हैं - जब कोई सुनी आँखों से हाथ फैलाता है..........
    क्या आप बोलोगे.

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  4. कडवा सच बयान करती है, यह कविता...लम्बे समय तक, मस्तिष्क पर इसका असर रहेगा

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  5. बहुत अच्छी लगी यह सुंदर कविता.... फोटो भी अच्छे लगे...

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  6. अच्छी कविता…पर शायद ख़त्म जल्दबाज़ी में हो गयी

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  7. शरद जी , आजकल तो भिखारियों में भी बनावटीपन आ गया है । क्या पता आप जिसे भीख दे रहे हैं , वो आपसे भी ज्यादा धनवान निकले ।
    लेकिन असली ज़रूरतमंद की मदद करना शोभनीय है ।

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  8. वाह जी क्या बात ले कर आये हैं आप सच ही है बहुत गहरी बात!!!!!!
    क्योंकि हम मूलत:
    भिक्षावृत्ति के खिलाफ़ हैं

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  9. यदि हमारे उपदेश भला कर पायें तो अवश्य बाटे जायें।

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  10. मार्मिक है ! ऐसी उलझन से हर संवेदनशील इंसान गुजरता ही है. पर मैं ऐसा समझती हूँ कि कुछ लोग सच में इतने विवश हो जाते हैं कि उन्हें अपने आत्म सम्मान को एक तरफ रखकर भीख माँगनी पड़ जाती है, ऐसे में मैं भरसक कोशिश करती हूँ कि अगर वो भूखे हैं तो खाना खिला दूँ. इससे अधिक अगर कुछ नहीं देती तो उपदेश भी नहीं देती, बस मन पर पत्थर रखकर नज़र फेरने की कोशिश करती हूँ.

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  11. शरद भाई,
    फ़र्क सिर्फ इतना है कि वो हमसे भिक्षा मांगता रहता है और हम ऊपर वाले से...

    जय हिंद...

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  12. आपके कविताओं के पिटारे की एक और कमाल कविता भैया.. जब ये आपने लिखी थी उस समय तक मुझे ढंग से दाँत मांजना भी नहीं आता था.. :)

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  13. ऐसी उलझन से तो दो छार होना पड़ता है कई बार ...भिक्षा दे या नहीं ...उपदेश के फेर में किसी जरूरतमंद के साथ अन्याय ना हो जाये ...
    अच्छी कविता ...!

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  14. असहायता के लिये उत्तरदाई कारणों की तह तक जाना और निवारण के यत्न एक अलहदा सवाल हैं इसके इतर आपकी कविता असहायता के ज़ज़्बाती पहलुओं पर विचारण करती है ! हमारे स्वयं के चिन्तन और उपदेशात्मक व्रत्तियों के द्वैध की रपट सी लगी !

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  15. सही बात कही कोकश सहाब,समाजवाद की बडी-ब्डी छोडने वाले हम लोग यह भूल जाते है कि आखिर वह भी इसी समाज मे भीख मांग्ने को मजबूर हुआ ।

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  16. क्योंकि हम मूलत:
    भिक्षावृत्ति के खिलाफ़ हैं

    sachmuch.........

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  17. कोरे सहानुभूति स्वयं सहानुभूति के पात्र हैं........क्योकि वक्त किसी को नहीं छोड़ता ..

    सारे मायने धरे रह जाते हैं - जब कोई सुनी आँखों से हाथ फैलाता है..........इसलिए सूनी आँखों में खुशियाँ जरूर भरनी चाहिए अपने सामर्थ्य के अनुसार.....

    लेकिन असली ज़रूरतमंद की मदद करना शोभनीय है .......इससे बड़ा कोई धर्म और कर्म ही नहीं ...

    फ़र्क सिर्फ इतना है कि वो हमसे भिक्षा मांगता रहता है और हम ऊपर वाले से.......इस दुनिया में हर कोई भिखारी है या ठगी के साथ चोरी करता है और उसके बदले ऊपर वाले को रिश्वत देता है .....


    आपके पोस्ट के साथ-साथ ऊपर जिन टिप्पणियों को मैंने आगे बढाया है वो सभी उम्दा विचार हैं ,इसलिए आपको इस उम्दा पोस्ट के लिए और उम्दा टिपण्णी के लिए टिपण्णी कर्ताओं का आभार ....

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  18. भिक्षा वृति के खिलाफ होते हुए कभी कभी सच ही अन्याय हो जाता है ...बहुत अच्छी प्रस्तुति

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  19. कोरे सहानुभूति स्वयं सहानुभूति के पात्र हैं........क्योकि वक्त किसी को नहीं छोड़ता .

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  20. हां ऐसा ही होता है. उपदेश देते हुए हम खुद कितने निरीह हो जाते हैं?

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  21. 1984 की डायरी .......और उसके ये पन्ने ...बहुत कुछ कह गए ..हां सच कहा आपने ..सोचता हूं कि इंसान का जीवन पाकर भी वे इंसान का जीवन कहां जी पाते हैं ..ओह ये मानव मन ..

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  22. ..चाँवल से भी वज़नी
    हमारे उपदेश और सहानुभूति
    और आश्वासन
    उसके झोले में लगे विवशता
    के पैबन्द फाड़
    धूल भरी सड़क पर
    जहाँ- तहाँ गिर जाते हैं ।
    ..मार्मिक।

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  23. गनीमत है कविता बन गई, वरना थोड़ा सा ज्‍यादा सोचना भारी पड़ने लगता है.

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  24. चावल से भी वज़नी
    हमारे उपदेश और सहानुभूति
    और आश्वासन
    उसके झोले में लगे विवशता
    के पैबन्द फाड़
    धूल भरी सड़क पर
    जहाँ- तहाँ गिर जाते हैं ।

    उपदेश देना बहुत आसान है...और भ्रिक्षवृत्ति के खलाफ होने का प्रण लेना भी...पर वे कैसे और क्यूँ इस हाल में पहुंचे..ये जानने का वक़्त किसी के पास नहीं होता.

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  25. अपने अर्थ विस्तार मे अद्भुत !!!

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  26. atyant komalkant aur maarmik.........

    bhaavuk kar diya aapne !

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  27. हमारे उपदेश और सहानुभूति
    और आश्वासन
    उसके झोले में लगे विवशता
    के पैबन्द फाड़
    धूल भरी सड़क पर
    जहाँ- तहाँ गिर जाते हैं

    अब आप क्या उम्मीद रखेंगे...यही होगा न...जिसके पास था उसने उसको वाही दिया.

    सुंदर विचार...एक लेखक ही ऐसी रोज-मर्रा की बात को लिख सकता है और उसका दर्द महसूस कर सकता है.

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  28. हमारे उपदेश और सहानुभूति
    और आश्वासन
    उसके झोले में लगे विवशता
    के पैबन्द फाड़
    धूल भरी सड़क पर
    जहाँ- तहाँ गिर जाते हैं।

    बहुत बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.

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  29. बहुत अच्छे भाव! सुन्दर कविता।

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  30. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 22 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
    कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  31. भिक्षा वृति का निदान कठिन है ! क्योंकि वे समझने को तैयार नहीं ! वे नही जानते की पैसे की अराजकता कितनी भयंकर है ! आपने सामाजिक जटिल मुद्दा उठाया है ! आभार !

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  32. फिर हमारी बस आ जाती है
    हम बैठकर चले जाते हैं
    चाँवल से भी वज़नी
    हमारे उपदेश और सहानुभूति
    और आश्वासन
    उसके झोले में लगे विवशता
    के पैबन्द फाड़
    धूल भरी सड़क पर
    जहाँ- तहाँ गिर जाते हैं ...


    भिक्षा वृति अपने आपमें एक समस्या तो है ही पर ये भी सत्य है की ऐसे प्रसंग देख कर सतही संवेदनाएँ जागती हैं और कुछ नारों और विचारों के साथ साथ ख़त्म हो जाती हैं ....

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  33. Very influential... Agli baar jab bhi koi bheekh maangta dikhega,mann apki kavita doharayega...

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  34. aajkal mera waqt safar me hi gujar raha hai aur aapke har shabd mere aage wahi tasvir liye khade ho gaye jo main dekhti hoon aur saamna bhi karti hoon .yahan to ulta hai madd karne par mujhe hi updesh sunne padte hai aur main is par lekh bhi likhi soch rahi hoon fursat milte daal doon .

    उससे पूछा है
    कोई काम करोगे
    उसके काम माँगने पर
    उछाल दिया है आश्वासन
    नेताओं की तरह
    क्योंकि हम मूलत:
    भिक्षावृत्ति के खिलाफ़ हैं

    फिर हमारी बस आ जाती है
    हम बैठकर चले जाते हैं
    चाँवल से भी वज़नी
    हमारे उपदेश और सहानुभूति
    और आश्वासन
    उसके झोले में लगे विवशता
    के पैबन्द फाड़
    धूल भरी सड़क पर
    जहाँ- तहाँ गिर जाते हैं ।
    bahut badhiya ,is par kahne ko bahut hai kyonki kai anubhav jude hai inse magar abhi aur yahan mumkin nahi .

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  35. @ अशोक यह कविता 1984 की है उस समय पुरातत्ववेत्ता सा धैर्य कहाँ था ।

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  36. 'सुधारक' मुद्रा वालों को बड़े कौशल
    के साथ एक 'प्रहारक' तोहफ़ा दे दिया भाई !
    वजनदार है रचना.
    ===============================
    डॉ. चन्द्रकुमार जैन

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  37. कटु सत्य है ।

    सर आपका ब्लाग मैने अपने ब्लाग लिस्ट में जोड़ लिया है ।

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  38. हमारे उपदेश और सहानुभूति
    और आश्वासन
    उसके झोले में लगे विवशता
    के पैबन्द फाड़
    धूल भरी सड़क पर
    जहाँ- तहाँ गिर जाते हैं ।
    किसीकी कितनी मजबूरी रहती होगी भीख मांगने से पहले । सोचने पर विवश करती रचना ।

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  39. .

    पर उपदेश कुशल बहुतेरे !

    Unfortunately , people love to preach a lot. But they do not have time and emotions to spare some time for them and extend their kind support for their better survival.

    Beautiful creation !

    Regards,

    .

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  40. हमारे उपदेश और सहानुभूति
    और आश्वासन
    उसके झोले में लगे विवशता
    के पैबन्द फाड़
    धूल भरी सड़क पर
    जहाँ- तहाँ गिर जाते हैं

    इतनी गहराई से उनका दर्द महसूस किया शरद जी कि क्या भिक्षावृति, महज हमारे कोरे खोखले आश्वासन या प्रताडनाओ से कम होगी ? आपकी कविता बहुत सुन्दर बन पड़ी | abhaar

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  41. कभी पटना प्लेटफोर्म पर एक मित्र का इंतजार कर रहा था . एक भिखमंगा आया . मैंने उसे एक रुपये का एक सिक्का दिया . उदारता दिखाई . मैं आध घंटे रुका वहां . करीब पचास भिक्षुक बगल से गुजरे . मैंने कोई उदारता नहीं दिखाई क्योंकि तब मैं उसकी जगह होता . उदारता और सहानुभूति की सीमा मैं वहीँ समझ पाया . पता नहीं आपके पास ऐसे अनुभव हैं या नहीं ?

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  42. चाँवल से भी वज़नी
    हमारे उपदेश और सहानुभूति
    और आश्वासन
    उसके झोले में लगे विवशता
    के पैबन्द फाड़
    धूल भरी सड़क पर
    जहाँ- तहाँ गिर जाते हैं ।

    शरद जी लाजवाब......
    भिक्षावृत्ति के खिलाफ़ तो हम भी हैं ....
    पर लाचार और मजबूरों के खिलाफ नहीं .....हाँ जो काम करने में समर्थ हों फिर भी भिक्षा मांगे उन्हें हरगिज़ नहीं देती ....

    ये चाँवल कहीं चावल तो नहीं ....?

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  43. शरद जी निशब्द हूँ..एक आम सच को आपने कविता में पिरोया है..सच्चाई यही है की ज़्यादातर लोग उपदेश देकर निकल लेते है...बहुत भावपूर्ण रचना ..बधाई

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  44. बेहतरीन रचनाओं में से एक लगी यह ! हार्दिक शुभकामनायें !

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  45. शरद जी लाजवाब कविता है, ये भी एक तरह का रोमांटिज्म हैं जो अमीरों में पाया जाता है, गरीबों के लिए! आप को पता है, गरीब और अमीर की करूणा में भी फ़र्क होता है!

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  46. 1984, कई मायनों में काफी कुछ बचपन में ही सिखा गई। उस समय की ये कविता। उस समय उम्र महज दस साल थी। उससे दो साल पहले 82 एशियाड में ठीक से जाना था भिखारी का मतलब क्या होता है सभ्य समाज के लिए। तब ये भी जाना था कि उपदेश देने से पहले सक्षम होना चाहिए। अगर कुछ न दे सको तो उपदेश भी न दो। कुछ कर न सको तो सिर झुका के आगे निकल जाओ। कशमकश में जीने से अच्छा है कुछ तलाशों उन आंखों में जो सामने हैं, अगर तोल न सको, तो फिर अपना फर्ज अदा करो औऱ कम से कम इतना ही उपर वाले सं मांगो...कि साई इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय, मैं भी भूखा न रहूं, साधु भी भूखा न जाए।

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  47. बहुत अच्छी लगी आपकी कविता। लेकिन आज कल ये तय कर पाना भी मुश्किल है कि भिखारी है कौन। हमारे शहर मे भिखारियों के बैंक खाते भी हैं। मगर क्सभी भिखारी दुतकारने लायक नही होते। धन्यवाद।

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  48. बहुत सुंदर कविता और सार्थक संदेश.

    रामराम

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  49. बहुत ही सुन्‍दर एवं गहन भाव लिये बेहतरीन और अनुपम प्रस्‍तुति ।

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  50. बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने जो प्रशंग्सनीय है!बधाई!

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  51. आदरणीय शरद कोकास जी आप को जन्मदिन की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं
    regards

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  52. एक जबरदस्त व्यंग्य.....
    प्रणाम आचार्य जी,
    एक विशाल वृक्ष की छाँव सुखद लगी.
    आभार
    रोशनी

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  53. बहुत बढिया कविता... लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है..

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  54. Bhikhari kahte hain....ham kaam nahi karenge...hamari to jaati hi hai maang kar khana...hamare bujurg bhi yahi karte they... haan bhikshavrati ke khilaab hoon lekin mehnatvratti ki samarthak....Soch ko badalna thoda mushkil hai sir ji....lekin aapne jis feel se likha hai wo badhiya hain

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  55. शिक्षा, स्वास्थ, रोटी, कपड़ा तथा मकान हमारी मूलभूत आवश्यकताएं हैं। शिक्षा के सहारे अन्य सभी आवश्यक -ताओं की पूर्ती संभव है। हमारी सामाजिक व्यवस्था में विभिन्न कारणों से समाज के अधिकांश वर्ग को शिक्षा के अधिकर से हजारों वर्षों तक वंचित रखा था। परिणामस्वरूप विवेक-शून्यता, अकर्मण्यता, भीरुता, आत्म- विशवास की कमी आदि के भाव कुछ लोगों में घर कर गए। मजबूरी में उन्होंने भिक्षा-वॄत्ति को आजीविका आसान साधन मान लिया गया। जैसे-जैसे अच्छी शिक्षा के दरवाजे सर्वसाधारण के लिए खुलते जाएंगे अथवा उस तक उसकी पहुंच संभव हो जाएंगी वैसे-वैसे भिक्षावॄत्ति पर अंकुश लगता जायगा। शिक्षा से वंचित रख कर किसी नागरिक को आजाद होने का सपना धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक बेइमानी है।
    सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी

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  56. आप सभी को इस कविता पर अपनी राय देने के लिए धन्यवाद ।
    और सीमा जी , जन्मदिन की शुभ्कामनाओं के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।

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  57. sarv pratham aapko janm -din ki hardik badhai jo ki seema ji se pata chala,bahut hi shubh kakamnayen.
    aapki kavita ki har panktiyan ek sachhai liye huue hain.bahut hi gahrai se likhi hai aapne,bahut hi sarthak rachna.
    poonam

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  58. क्योंकि हम मूलत:
    भिक्षावृत्ति के खिलाफ़ हैं

    मन से, तन से, धन से, हर तरह से..............

    रचना सत्य से परे नहीं, वास्तविक हकीकत को ही बयां कर रही है..............

    सच कि सच्चाई को सच्चाई से कहने का हौसला कोई आपसे सीखे............

    चन्द्र मोहन गुप्त

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  59. शरद जी आपने सच्चाई बयान कर दी है। बहुत सुन्दर सधी हुई पोस्ट। मुझे नही लगता कहीं से भी यह हमसे अलग है।

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