शुक्रवार, अगस्त 20, 2010

" लिखो ! न सही कविता – दुश्मन का नाम " - लीलाधर मंडलोई की एक कविता


            ख़बर मिली है कि आज रात कवि लीलाधर मंडलोई दिल्ली से भिलाई आ रहे हैं , मै इतना खुश हूँ कि उनका कविता संग्रह “ मगर एक आवाज़  “ लेकर बैठ गया हूँ और उनकी कवितायें पढ़ रहा हूँ । वे भिलाई इस्पात संयंत्र के राजभाषा के एक कार्यक्रम में भाग लेने आ रहे  हैं और भिलाई में ही अपने साढ़ूभाई महेश  के घर भी जाने वाले हैं । उनके आगमन को लेकर कवि अशोक सिंघई और महेश ही नहीं हम सभी मित्र उत्साहित है और उनके कविता पाठ के आयोजन की तैयारी  में लगे हैं । इस कार्यक्रम की रपट तो ' पास पड़ोस " पर बाद में दूँगा  । फ़िलहाल पढ़िये संग्रह से उनकी यह कविता  “लोहे का स्वाद “  यह कविता पढ़ने में बहुत सरल लगती है और देखने में भी , लेकिन इस कविता में कई कई स्वाद हैं …देखें कितने स्वाद  आप जान पाते हैं  । 

                                                     लोहे का स्वाद

कुछ ऐसी वस्तुएं जिनके होने से
आत्महत्या का अंदेशा था
बदन से उतार ली गईं
बेल्ट और दाहिने हाथ की अंगूठी
पतलून की जेब में पड़े सिक्के
बायें हाथ की घड़ी कि उसमें ख़तरनाक समय था
जूते और यहाँ तक गले में लटकती पिता की चेन

अब वे एक हद तक निश्चिन्त थे
ख़तरा उन्हे इरादों से था
जिनकी ज़ब्ती का कोई तरीका ईज़ाद नहीं हुआ था
सपनों की तरफ़ से वे ग़ाफ़िल थे
और इश्क के बारे में उन्हे कोई जानकारी न थी
 
घोड़े के लिए सरकारी लगाम थी
नाल कहीं लेकिन आत्मा में ठुकी थी
वह एक लोहे के स्वाद में जागती रात थी

लहू सर्द नहीं हुआ था
और वह सुन रहा था
पलकों के खुलने - झुकने की आवाज़ें
पीछे एक गवाह दरख़्त था
जिसकी पत्तियाँ सोई नहीं थीं

एक चिड़िया गुजर के अभी गई थी सीखचों से बाहर

और वह उसके परों से लिपटी हवा को
अपने फेफड़ों में भर रहा था
बाहर विधि पत्रों की दुर्गन्ध थी
बूट जिसे कुचलने में बेसुरे हो उठे थे
वह जो किताब में एक इंसान था
एक नए किरदार में न्याय की अधूरी पंक्तियाँ जोड़ रहा था

बाहर हँसी थी फरेबकारी की
और कोई उसकी किताबों के वरक़ चीथ रहा था
मरने की कई शैलियों के बारे में उसे जानकारी थी
लेकिन वह जीने के नए ढब में था

इस जगह किसी मर्सिए की मनाही थी
वह शुक्रिया अदा कर रहा था चाँद का
जो रोशनदान से उतर उसके साथ गप्पगो था
बैठकर हँसते हुए उसने कहा
लिखो ! न सही कविता – दुश्मन का नाम ।

                                       लीलाधर मंडलोई  

( चित्र शरद कोकास के एलबम से व गूगल से साभार )     

32 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी मुलाकात, कविता पाठ की रिपोर्ट आदि का इन्तजार रहेगा.

    यह कविता बहुत पसंद आई. अभी कई बार पढ़ना होगी.

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  2. सच कहा अभी तक तो आधा स्वाद भी नहीं चख पाया.. फिर से पढ़ना पढ़ेगा.. अकेले में..

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  3. बहुत संवेदना है कविता में ।
    कवियों की सोच भी कितनी विस्तृत और अनूठी होती है ।

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  4. ...बाहर विधि पत्रों की दुर्गन्ध थी
    बूट जिसे कुचलने में बेसुरे हो उठे थे
    वह जो किताब में एक इंसान था

    एक नए किरदार में न्याय की अधूरी पंक्तियाँ जोड़ रहा था..

    ... लीलाधर मंडलोई की एक कविता पूरे दिन पर भारी है. इस कविता में भी लोहे के कई स्वाद हैं. एक स्वाद वह जिसे घोड़ा अपनी नाल में महसूस करता है,एक वह जो नए किरदार में न्याय की अधूरी पंक्तियाँ जोड़ता है, पलकों के खुलने-झुकने के बीच का एहसास और...

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  5. मुश्किल सोच, मुश्किल आदत,
    गहराई समझाने की ये चाहत,
    न जाने 'मजाल'
    कितनो को ले डूबी खांमखां

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  6. ''अब वे एक हद तक निश्चिन्त थे
    ख़तरा उन्हे इरादों से था
    जिनकी ज़ब्ती का कोई तरीका ईज़ाद नहीं हुआ था
    सपनों की तरफ़ से वे ग़ाफ़िल थे
    और इश्क के बारे में उन्हे कोई जानकारी न थी''
    .................................
    आज के दोगले समय को भी चकमा यदि दे सकता है तो वह शब्द शिल्पी ही !!!!!!!

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  7. मुझे ये रचना इतना पसंद आया कि एक बार पढ़ने पर मन नहीं भरा और मैंने चार दफा पढ़ा! कुछ अलग सा है और बहुत ही सुन्दरता से तस्वीरों के साथ प्रस्तुत किया है आपने! लाजवाब!

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  8. यह कविता बार-बार बस पढने को मजबूर कर रही है...कुछ कहने को नहीं...

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  9. कविता बार बार पढने को मजबूर कर रही है और हर बार एक नया अहसास दे रही है……………ना जाने कितने स्वाद भरे हैं।

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  10. सपनों की तरफ़ से वे ग़ाफ़िल थे
    और इश्क के बारे में उन्हे कोई जानकारी न थी''

    बड़ी कविता !

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  11. क्या कहूं, कैसे कहूं, अच्छी रचनाएँ खामोश कर देती हैं. फिर लीलाधर जी की रचना हो तो कहना ही क्या. आपने सचित्र पोस्ट लगाकर एहसान किया.
    मैं बहुत जमाने बाद आ सका हूँ. माफी नहीं मांगूंगा क्योंकि हिसाब बराबर है, आपने भी प्रार्थी की खैरियत-कैफियत लेने की कोई कोशिश नहीं की.
    इस कविता का सुरूर तो जाने कब तक बरकरार रहेगा.
    लीलाधर जी की प्रतीक्षा है.

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  12. इस कविता को जितनी भी बार पढ़िए..मन नहीं भरता...शानदार व सशक्त प्रस्तुति.

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  13. Sharad Bhai ,bahut gahri kavita ki purani yaad taja kar di aapney,bahut bahut aabhar .
    sader,
    dr.bhoopendra
    jeevansandarbh.blogspot.com

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  14. अभी तो आधी समझ आई है और बताने चली आई हूँ की कई बार शायेद पढ़ना होगा. शुक्रिया इतनी अच्छी कृति हमें देने के लिए.

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  15. बहुत अच्छी कविता ... दोबारा...तिबारा ...कई बार पढ़ने वाली ...

    घोड़े के लिए सरकारी लगाम थी
    नाल कहीं लेकिन आत्मा में ठुकी थी
    वह एक लोहे के स्वाद में जागती रात थी

    वाह! ऐसी कितनी रातें हम जीने को बाध्य हैं ....

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  16. बैठकर हँसते हुए उसने कहा
    लिखो ! न सही कविता – दुश्मन का नाम ।
    बेहद सही जगह इशारा कर रही है यह कविता।

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  17. kafee bar chakhna hoga tab jakr samaz me aayega lohe ka ye swad.
    Aap hume aisee hee rachnaen padhwate rahen tab humaee samz men bhee shayad ijafa ho .
    Aapke report ka intjar rahega.

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  18. ''अब वे एक हद तक निश्चिन्त थे
    ख़तरा उन्हे इरादों से था
    जिनकी ज़ब्ती का कोई तरीका ईज़ाद नहीं हुआ था
    सपनों की तरफ़ से वे ग़ाफ़िल थे
    और इश्क के बारे में उन्हे कोई जानकारी न थी''

    bahut khoob ,
    aananad aa gaya ,
    sharad jee ,
    lila dhar jee ,
    saadar pranam !
    saadar !

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  19. लहू सर्द नहीं हुआ था
    और वह सुन रहा था
    पलकों के खुलने - झुकने की आवाज़ें
    पीछे एक गवाह दरख़्त था
    जिसकी पत्तियाँ सोई नहीं थीं
    bahut hii behatariin kavita

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  20. शरद जी ,

    कई बार पढ़ी नज़्म ....
    शब्दों का चयन ....बिम्ब ....प्रस्तुति ....
    अद्भुत शब्द संयोजना ....
    लगा कि कुछ पढ़ा है .....

    आपका आभार जो मंडलोई जी की नज़्म से अवगत कराया .....!!
    मिलें तो मेरी तरह से आदाब कहियेगा .....!!

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  21. मंडलोई भाईसाहब से मिलना उनकी कविताओं की तरह ही रिफ्रेसिंग अनुभव होता है…मिलिये तो मेरा सलाम कहियेगा…

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  22. अब वे एक हद तक निश्चिन्त थे
    ख़तरा उन्हे इरादों से था
    जिनकी ज़ब्ती का कोई तरीका ईज़ाद नहीं हुआ था
    सपनों की तरफ़ से वे ग़ाफ़िल थे
    और इश्क के बारे में उन्हे कोई जानकारी न थी
    शरद जी, मंडलोई सर की कविताओं का कोई जवाब ही नहीं. जब मैं आकाशवाणी छतरपुर युववाणी कम्पेयर थी, तब मंडलोई जी वहां केन्द्र निदेशक थे :) उनकी कविताएं तब मेरी समझ में बहुत कम आती थीं, लेकिन अब लगता है, एक बार फि उन्हें सामने से सुनने का मौका मिल जाये.

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  23. हर बार पढने पर नया स्वाद दे जाती है

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  24. आज अपने ब्लॉग पर आपकी छोटी सी टिप्पणी देखी तो पिर आ गई लोहे का स्वाद चखने पढते पढते लगा जैसे कील मेरी ही आत्मा में ठुक रही थी । क्या खूब लिखा है ।

    घोड़े के लिए सरकारी लगाम थी
    नाल कहीं लेकिन आत्मा में ठुकी थी
    वह एक लोहे के स्वाद में जागती रात थी
    और
    इस जगह किसी मर्सिए की मनाही थी
    वह शुक्रिया अदा कर रहा था चाँद का
    जो रोशनदान से उतर उसके साथ गप्पगो था
    बैठकर हँसते हुए उसने कहा
    लिखो ! न सही कविता – दुश्मन का नाम ।
    मंडलोई साहब चरण स्पर्श !

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  25. किसी कविता की पंक्ति थी- लोहे का स्‍वाद लुहार से नहीं घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है. सलाखों और बूटों के साथ गप्‍पगो चांद पा लेना रचना में चार चांद लगाता है.

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  26. कई बार पढ़ने के बाद आज लिखने का मन हुआ- बहुत सुन्दर! शुक्रिया इसे पढ़वाने के लिये।

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  27. अब वे एक हद तक निश्चिन्त थे
    ख़तरा उन्हे इरादों से था
    जिनकी ज़ब्ती का कोई तरीका ईज़ाद नहीं हुआ था
    सपनों की तरफ़ से वे ग़ाफ़िल थे
    और इश्क के बारे में उन्हे कोई जानकारी न थी

    बहुत ही गहरी अनुभूति

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